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होलीका त्यौहार
लम्बित राष्ट्रीय एकता श्रादिकी दृष्टि से चित्तकी शुदि ही हितसाधन कर सकेगी और स्वराज्यको पात निकर को कायम रखते हुए यह त्यौहार अपने शुद्ध स्वरूपमें ला सकेगी। यदि कांग्रेस ऐसा करनेके लिये तैयार न मनाया जाय और उससे जनताको उदारता एवं सहन- हो तो फिर हिन्दू समाजको ही इस त्योहारके सुधारका शीलतादिका सक्रिय सजीव पाठ पढ़ाया जाय तो इसके भारी यत्न करना चाहिये। द्वारा देशका बहुत कुछ हित साधन हो सकता है और क्या ही अच्छा हो, यदि देशसेवक जन इस स्यौवह अपने उत्थान एवं कल्याणके मार्ग पर लग सकता हारके सुधार-विषयमें अपने अपने विचार प्रकट करने है। इसके लिये ज़रूरत है काँग्रेस-जैसी राष्ट्रीय संस्था की कृपा करें और सुधार-विषयक अपनी अपनी योजके आगे पानेकी और इसके शरीरमें घुसे हुए विकारों नाएँ राष्ट्र के सामने रखकर उसे सुधारके लिये प्रेरित को दूर करके उसमें फिरसे नई प्राण-प्रतिष्ठा करने की। करे। यदि कुछ राष्ट्र-हितैषियोंने इसमें दिलचस्पीसे यदि कांग्रेस इस त्यौहारको हिन्दू धर्मकी दलदलसे भाग लिया तो मैं भी अपनी योजना प्रस्तुत कसँगा निकाल कर विशुद्ध राष्ट्रीयताका रूप दे सके, एक और उसमें उन मर्यादाओंका भी थोड़ा बहत उस्लेख राष्ट्रीय सप्ताह श्रादिके रूप में इसके मनानेका विशाल करूंगा जिनकी सुधारके लिये नितान्त प्रावश्यकता है। आयोजन कर सके और मनानेके लिये ऐसी मर्यादाएँ मर्यादाएँ पहले भी जरूर थीं, जिनके भंग होनेसे लज्यनिशा करके दृढताके साथ उनका पालन कराने में समर्थ भ्रष्ट होकर ही यह त्यौहार विकृत हा। और इसी होमके जिनसे अभ्यासादिके वश कोई भी किसीका लिये बहुत सेसे मैने भी होलीका मनाना-उसमें शरीक अनिष्ट न कर सके और जो व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनोंके होना-छोड़ रखा। उत्थानमें सहायक हों, तो वह इस बहाने समता और
बीरसेवामन्दिर, सरसावा स्वतन्त्रताका अच्छा वातावरण पैदा करके देशका बहत
होली होली है!
शान-गुलाल पास नहि, श्रद्धा
समता रंग न रोली है। नही प्रेम-पिचकारी करमें,
केशर-शान्ति न पोली है। स्थादादी सुमृदा बजे नहि,
नहीं मपुर-रस बोली है। कैसे पागल बने हो चेतन..
बते 'होली होली है।
ध्यान-भमि प्रज्वलित हुई नहि
कर्मेन्धन न जलाया है। असद्भावका धुओं उड़ा नहि,
सिब-स्वरूप न पाया है। भीगी नहीं जरा भी देखो,
सानुभूतिकी चोली है। पाप-भूति नहि उड़ी, कहो फिर
से होली होली है।