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प्रवेकान्त
[फाल्गुन बी-रनिर्वावसं० २४१६
बाता है। यह आकर्षण प्रत्येक अहवस्तुमें है । काँचके जिन लोगोंमें उम सनातन वियोगकी चिरंतन किन्हीं भी दो समतल टुकड़ोंको एक दूसरेपर रखनेते वे अग्नि जल रही है वे हो सर्वश्रेष्ठ कवि है, दार्शनिक हैं चिपकसे जाते है और जोर देनेपर छूटते हैं । इसी और योगी हैं। जिनमें वह अग्नि विभ्रांतिसे दब गई प्रकार लोहे के टुकड़ों में, लोहे और लोहकांत (चुंबक) में, है-जिनकी विषयलालसोंने उसे दबा दिया हैलोहकातके विभिन्न ध्रुवों ( Poles ) में तथा एक ही जिनके कर्म उसे जानने नहीं देते उनका कर्तव्य है कि प्रकारकी दूसरेसे विभिन्न गुण वाली सृष्टिों -नर और वे भ्रांति दूर करें-विषयोंसे बचें। यह वह अग्नि है मादामोंमें यह आकर्षण बहुत ही प्रबल है। जिसके तीव्र होनेपर सब कर्ममल काफूरके समान उड़
मनुष्य आदि उच्च प्राणियोंमें उक्त दोनों प्रकारके जाते हैं। कहा भी है-"प्रेमाग्निना दबते सर्वपापं ।" आकर्षणोंका, एक विचित्र संमिश्रण है। अनेक बार प्रेमके विकास के लिये योगद्वारा प्रदर्शित जुदी-जुदी देखा जाता है कि आध्यात्मिक प्रेम अनेक बार इस प्रकृति के लोगोंके लिये साधककी योग्यतानुसार जुदे-जदे शारीरिक जर मोहमें परिणत होना है और शारीरिक मार्ग है। प्रेम अनेक बार माध्यामिक रूप ले लेता है । स्त्री- सात्विक प्रकृति के साधकोंके लिये ईश्वर-भक्ति पुरुषका आकर्षण इसी प्रकारका है।
या ईश्वर-प्रेम उत्तम उपाय है, ईश्वरप्रेम क्या है और __ जडपदार्थों में जो आकर्षण है वह प्रेमका असली किस तरह किया जाना चाहिए, यह बताने के पहले यह कप नहीं है वह उसका बहुन ही विकत और तामसी जानना श्रावश्यक है कि दरअसलमें ईश्वर है क्या रूप है। प्राध्यात्मिक प्रेम ही सत्य है और सब प्रेम वस्तु ? कुछ है, माया है और मोह हैं । आध्यात्मिक प्रेमग्राह्य ईश्वर शब्द प्राचीनसे प्राचीन वेदादि ग्रंथोंमें तीन हैऔर जड प्रेम त्याज्य है। प्राध्यात्मिक प्रेम आत्मिक अर्थोंमें आया है, इनको समझ लेनके बाद इनका उमतिका कारण है और जडप्रेम अवनतिका । समन्वय अनेकान्त दृष्टिस किया जा सकता है।
प्रात्माके विकास के लिये प्रेमकी बहुत बड़ी प्राव- ईश्वर या ब्रह्मका प्रथम अर्थ आध्यात्मिक है । इस सकता है। यह विश्वके प्रत्येक प्राणीके प्रति प्रेम ही अर्थमें प्रात्मा ही शाश्वत और अविनाशी ब्रह्म है। मजिसने भगवान महावीर और बुद्धको महान् बनाया। यथायह सीताके प्रति प्रेम ही था जिसने रामचन्द्रजीको पुरातनो पुरुषोभमीणे हिरवमयो शिवरूपमस्मि । बहान बनाया और जिसे कबि लोग गात गाते नहीं थ. बेदरकामेव वेद्यो विश्वविद्वेदविदेव चाहं । कते। शारीरिक प्रेम भी वियोग होने के बाद प्राध्यासिक पुरवपापे मम नास्ति माशो न जन्मवेदविवादिरस्तिा प्रेमों परिणत हो जाता है। प्रेमका स्पेन्दर्य वियोगमें समस्तसालि सक्सविहीनं प्रमाति वं परमात्मरूपम् । है, संयोगमें तो उसका समय भी नहीं है । मेषदूत प्रवेशवमानोति संसाराबवनाशनं । इज लिवे सर्वोचम काम्य है-उसमें हम उस चिरंतन तस्मादेन विवि वाले पदमरखते। विगत एक मामास मिलता है और प्रात्मा उसे
-अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषद् अह पिपासासे पीती जाती है।
श्वरका दूसरा अर्थ प्राधिभौतिक या सामाजिक