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अनेकान्त
[फाल्गुन, बीर-निवाब. २०५५
अपनी कुत्सित चित्तवृत्तिके अनुकूल उस प्राणिको चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके दुली करनेके अनेक साधन जुटाये जाते हैं; मायाचारी वश होते हैं। इसलिये हिंसाके सब मिला कर स्थूलरूप से दूसरोंको उसके विरुद्ध भड़काया जाता है, विश्वास- से १०८ भेद हो जाते हैं। इन्हीं के द्वारा अपनेको तथा पात किया जाता है-कपटसे उसके हितैषी मित्रोंमें दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया फट गली जाती है-उन्हें उसका शत्रु बनानेकी चेष्टा जाता है। इसीलिये इन क्रियाओंको हिंसाकी जननी की जाती है, इस तरहसे दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप कहते हैं । हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में म्यापारके साधनोंको संचित करने तथा उनका अभ्यास बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता हैबढ़ानेको समारम्भ कहा जाता है | फिर उस साधन
सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते सस्थावरातिनाम् । सामग्री के सम्पन्न हो जाने पर उसके मारने या दुखी प्रमत्तयोगतः प्राणा न्य-भावस्वभावकाः ॥ करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है उस क्रिया
-अनगारधर्मामृते, अाशाधरः ४, २२ को प्रारम्भ कहते हैं। ऊपरको उक्त दोनों क्रियाएँ तो अर्थात्-क्रोध-मान-माया और लोभके आधीन हो भावहिंसाकी पहली और दूसरी श्रेणी हैं ही, किन्तु कर अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे तीसरी प्रारम्भक्रियामें द्रव्य-भाव रूप दाना प्रकारको प्रमजीवोंके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके--नथा हिंसा गर्भित है, अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी स्थावर जीवोंके--पृथ्वी, जल, हवा और बनस्पति श्रादिमें जननी है। इन क्रियाओंके साथमें मन वचन तथा काय रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके ---द्रव्य और भाव प्राणोंका घान की प्रवत्तिके संमिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं करना हिंसा कहलाता है । हिंसा नहीं करना सो अहिंसा
और कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनु. है अर्थात् प्रमाद व कषायके निमित्तते किसी भी सचेतन मोदन-किसी को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त पाणीको न सताना, मन वचन-कायसे उसके प्राणों के करना, इनस गुणा करने पर हिंसाके २७ भेद होत है। घात करने में प्रवचि नहीं करना न कराना और न करते
--- ----- -- xपरिदाबादोहये समारम्भो।
हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' है । अथवा-भग. पाराधनाया, शिवार्यः ८१२ रागावणमणुप्पा अहिंसगत्तेति भासि समये। साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः।
तेसिं चेदुप्पत्ती हिंमेति जिहि विदिशा ॥ - --सवार्थसिद्धौ, पूज्यपादः, ६,८।
--सर्वार्थमिद्धो, पूज्यपादेन उद्धृतः । साभावारिसादिक्रियावासापनानासमाहारःसमारंभः। अर्थात्-आला राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति
-विजयोदयायो, अपराजितः,गा० ८११। नहीं होने देना 'अहिंसा है और उन विकारोंकी पाल्मामें मारंभो गमो,
उत्पत्ति होना 'हिमा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूपमें -म० माराधनाया शिवार्य, ८१२। कहा जा सकता है कि श्रात्मामें जब राग-द्वेष-काममा बारम्भ। -सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादः ६, ८। क्रोध-मान-माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती संचितासाचुपकरवस्य पाचः प्रम पारंभः। तब ज्ञानादि रूप प्रारमस्वभावका घात हो जाता है
विजयोदयाया; अपराजितः, गा०८११ इसीका नाम भाव हिंसा है और इसी भाव हिंसासे