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भनेकान्त
शगुन, वीरनिवार सं०
के शिष्य भी धमाकल्याण मुनिने भी राजशेखर दूरि- जन्म-स्थान "पिर्वगुई" नामक कोई ब्रह्मपुरी बतलाई बत ही उन्होख किया है। और यह भी विशेषता बत- गई है। माताका नाम गंगा और पिताका नाम शकर. लाई कि हरिभद्र सूरिके क्रोधको शांत करनेवाले मह बतलाया गया है। इसी प्रकार याकिनी महत्चराजी भी जिनमट सूरिजी नहीं थे; किन्तु "याकिनी महत्तराजी" के साथ चरित्र-नायक श्री जिनभटजीकी सेवामें नहीं
गये थे, किन्तु श्री जिनदत्त सूरिजीके समीप गये थे; सुना जाता है कि इन्होंने १४ अथवा १४. ऐसा उल्लेख है। श्री जिनदत्त सूरिजीसे हरिभद्रसरिने बौदोको नाश करनेका संकल्प किया था; अतः उस प्रश्न किया था कि "धर्म कैसा होता है" ? इसपर संकल्पणा हिंसाकी निवृत्तिके लिये १४४४ अथवा गुरुजीने उत्तर दिया कि धर्म दो प्रकारका होता है:१w.पयोंके रचनेकी आदर्श प्रतिज्ञा ली थी। अपने १ सकामवृत्तिस्वरूप धर्म और २ निष्कामवृत्तिस्वरूप उज्वल जीवनमें ये इतने ग्रंथ रच सके थे या नहीं, इस धर्म । प्रथमसे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है और द्वितीयसे सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता है। "भव-विरह" होता है। इसपर भद्र-प्रकृति हरिभद्र सरिने केवल इतने अन्यों के रचनेवाले को जाते हैं एवं माने
सविनय निवेदन किया कि ? करुणासिंघो! मुझे तो जाते है।
"भव-विरह" ही प्रिय है। इसपर श्री जिनदत्त सूरिजीने हरिभद्र सरिने अपने कुछेक ग्रन्थों के अन्तमें 'विरह'
प्रसन्न होकर उन्हें साधु-धर्मकी पवित्र दीक्षा दी। शब्दको अपने विशेषण रूपसे संयोजित किया है। यह
शिष्योंके सम्बन्धमें कथावलिमें इस प्रकार उल्लेख
है कि इनके दो शिष्य थे, जिनके नाम कमसे जिनभद्र सन्द हंस और परमहंसकी अकाल मृत्युका द्योतक है. ऐसी मान्यता है। उनके दुःखसे उत्पन्न वेदना स्वरूप
और वीरभद्र थे। इन दोनोंको बौद्धोंने किसी कारणही एवं उनकी स्मृति के लिये ही "विरह" शब्द लिखा
वशात् एकान्तमें मार डाला था, इससे हरिभद्र रिको भार्मिक आघात पहुँचा एवं प्रात्मपात करनेके लिये
वे तैयार होगवे । किन्तु ऐसा नहीं करने दिया गया। . श्री प्रमाचन्द्र सूरिने अपने प्रभावक चरित्रमें
अन्तमें हरिभद्र सूरिने प्रथ-रचना ही शिष्प अस्तित्व लिला कि प्राचार्य हरिभद्र रिने अपने ग्रंथोंका
समझा और तदनुसार इन्होंने अनेक अन्योंकी रचना म्यापक और विशाल प्रचारार्थ तथा अन्योकी अनेक
की। प्रतियां तैयार करने के लिये "काासिक" नामक किसी
इसी प्रकार कथावलिमें यह भी देखा जाता है कि भव्य प्रात्माको व्यापारमें लाभकी भविष्यवाणी की थी,
हरिभद्र सुरिको लखिग"नामक एक सद्गृहस्थने अन्यऔर तदनुसार उसने व्यापारकर पुष्पल द्रम्ब-लाम किया था, जिससे उसने अनेक प्रतियां तैयार कराई
रचनामें बाल सामग्रीकी बहुत सहायता प्रदान की थी। और स्थान १ पर पुस्तक मंडारोंमें उन भिजवाई थी।
यह जिनभद्र वीरभद्रका चाचा (पितम्य) था । इसे
चरित्र नायकजीकी द्रव्य-विषयक मषिण वाणीसे पुकार कथा-मिलता
लाम हुआ था। इसने उपायमें एक ऐसा रत्न रस भी मश्वर सूरि कत कथावालिमें हरिभद्र सरिका दिया था कि जिसका प्रकाश रानिमें दीपम्वत् सिता