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बहुत दूर निकल गया !--मया-कुल-चित धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं !"
. लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला। कानोंने सुना, आँखों ने देखा-- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है! सच, चला रहा है इसी ओर ! धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ-का-तहाँ ! यह आया !
[पौष, बीर-निर्वाच सं० २०११
तो भाज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि. लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ...पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !"
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'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !"
विकास
'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे ।'
'लेकिन वह मेरा हो तब न ?”
'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी
धन्यकुमारने समझा जैसे उसका अन्त-समय है, काल सामने खड़ा है !
पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !"
दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !!
'आप लौट चलिए ! आपका धन यहाँ रह गया है, उसे ले आइए।'
'मेरा घन...?'
'हाँ ! आपका ही...!'
'मेरे पास तो शरीर पर इन बस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !'
'ठीक है! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टीके नीचे दबा निकला है-- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !"
'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !'
मेरा ? जिसने दरिद्रताको गोदमें बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई - इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं-.
आप !
बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चुभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !'
हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द 'वह मेरा नहीं है--भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कण्ठसे बाहिर आनेके लिए उद्यत हुए ! पर कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !'
वह बोल न सका !
'वह नहीं मान सकता- मैं ! अगर मेरा होता,
स्वप रह गया !!!