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[माध, बीर-निर्वाव सं०
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है भाज!
नहीं था, उसे देखनेकी कतई इच्छा उसके मनमें इसके बाद ही,षोडषी-नारीकी भू बंकके भांति, नहीं थी, भावना विरुद्ध दृश्यकी कठोरताने उसे कमानको बनाया गया, फिर सधे हुए हाथोंने बाण प्रांखें बन्द करनेको विवश किया हो !'एक का निशाना साधा ! और दूसरे ही पल-लक्ष्य- गहरी साँसके साथ सब समाप्त, जीवन-लीलाका वेध ! पण हिरणी पेटमें होकर आर-पार ! अन्त !
शिकारीने जाकर देखा-जमीन खूनसे रंग शिकारीका मन-तितलीके पंखोंकी तरह रही है ! विवश-नेत्रोंसे हिरणी अपने प्रेमी, अपन सुन्दर, चारेको चोंचमें दबाए, नीड़को लौटते पंछी सब-कुछ, अपने स्वामीकी ओर देख रही है ! उस की भांति तौन-गतिंसे उड़ रहा है ! खूनमें तेजी 'देखने में जैसे सारे संसारकी दीनता भरदी है, शरीरमें नव-जीवन-सा प्रवेश हुआ लगता है।
शायद हिरणीका जीवन भी इसीमें आ मिला है। भाँतें बाहर निकली आ रही हैं, जीभ-हाँ, यों ही, अलक्षित भावसे -जो मुँह पर आया वही सूखी-सी जीभ-मुँहके बाहर, दांतोंकी कैदके -गुन गुनाते हुए शिकारी हिरणीके 'शव' को बाहर हो रही है ! बार-बार भागनेकी बेकार को- घोड़े पर लादनेके लिए उठाने लगा, कि सामने शिश करती है, और गिर-गिर जाती है ! कितनी हिरण !! द्वानक, कितनी दयनीय ?
'अरे, यह सबसे यहीं खड़ा है ?-विस्मयक मगर शिकारीके लिए हिरणीका बध-खुशी साथ शिकारीके मुँहसे निकल गया ! और वह थी, दिन-भरके परिश्रमका पुरस्कार था-बहुत एकटक हिरणके मुँहकी ओर देखने लगा! मामूली, बहुत छोटा-सा ! उसकी आँखोंमें एक प्रकृतिके लगाये हुए काजलसे अलंकृत आँखें, चमक-सी प्रागई ! सफल मनोरथ होने पर आती वेदनाके पानीसे भीग रही हैं । जिन आँखोंकी है-वैसी ! कूद कर घोड़ेसे उतरा, बरौर ग्लानिके उपमा प्रकृति के पुजारी, भावुक कवि बड़े गौरवके उसके खूनसे, लाल-लाल, कालेरुख गाढ़े खूनसे, माथ, सौन्दर्य-विभूतियोंको दिया करते हैं, वही सने शरीरको उठाया ! और क्षत्रियत्वकी ताकत आँखें शोकके अथाह गर्त में डूबी जा रही हैं ! जैसे लगाकर पेटमें धमे हुए बाणको खींच निकाला ! उन आँखोंकी रोशनी मर चुकी हो, बुझ चुकी हो, प्रोफ!!!
राख बन चकी हो !! हिरणीके विह्वल-नेत्रोंने एक बार चारों ओर शिकारीका शरीर ढीला पड़ने लगा ! मनमें को देखा ! क्या देखा? क्या देखना चाहती थी ? एक आंधी-सी उठने लगी ! आँखोंमें जलन-सी -इसे कौन जाने ? पर दीखा उसे अपना यम, महसूस होने लगी ! हाथ निर्जीव-से, शरीर सुन्नसाकार-काल-क्षत्रिय-पुत्र ! ""कुछ घबराई, एक सा और मुँह सूखा-सूखा-सा मालुम देने लगा !! बार तड़पी, पैर भी पीटे ! फिर एकदम शान्त ! वह टूटे-पेड़की तरह खड़ा रह गया, खण्डपाखें मुंद गई--जैसे, उसे जो दीखा, वह इष्ट हरकी तरह स्तब्ध ! श्मशानकी तरह वीभत्स !...