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[पौष, वीर निर्वाय सं०२०
संस्कारका--पय हो जाता है। जैसे दीपका निर्वाह और जैनियोंका निर्वाण प्रादि सबको एक नहीं बता हो जाता है और वह शान्त हो जाता है, वैसे ही महत् सकते । महायान सम्प्रदायने शन्यवादको 'अन्तद्वयभी शामिल हो जाता है। उसका नाम रूप' कुछ भी रहित' 'चतुस्कोटिविनिर्मुक्त' 'मध्यम प्रतिपदा' मादि बाकी नहीं रहता. उसका 'भाष निरोध' हो जाता है। विशेषण देकर उसे ब्रह्मवादके अत्यन्त समीप खानेका याऐसी अवस्था है जिसकी उपमा 'शब्द रहिन भन्न प्रयत्न किया, जिसका फल यह हुआ कि कालांतरमें
(noiseless broken gong) से दी गई है महायान अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही खो बैठा । कारण
are जाने नि:शब्द हो जाता है, वेसी ही स्पष्ट है कि जब तक कोई वस्तु भद्धत अथवा नई होती मा निर्वाण प्राप्त करने पर महंतकी भी हो जाती है, तभी तक लोगोंका ध्यान उसकी भोर भाकर्षित है।मागे चलकर Childers ने स्पष्ट लिखा है। होता है। खैर! ___"A great number of expressions इसके अलावा यह भी ध्यान रखनेकी बात है कि are used with reference to निवाण which इस तरह तो वेदान्त, सांख्य प्रादि दर्शनोंके मोष सिImavena room to doubt that it is the द्धान्तको और जैन दर्शनके मोतसिद्धान्तको भी एक absolute extinction of being the मानना चाहिये, क्योंकि ये सब दर्शनकार भी मोषको annihilation of the individual being. अचल, स्थिर श्रादि मानते ही हैं। ... The Simile of fire is the strongest असलम बात तो यह है कि प्राचारी जी अपना possible way of expressing anushila- मत बनाने में जल्दी बहुत करते हैं । जहाँ उनको कोई tion intelligably toall"
बात दिखाई दी, वे झट, उस पर अपना निर्णय दे अर्थान् बौद्ध-ग्रन्थों में जो निर्वाण के सम्बन्धमें डालते हैं, उसपर अधिक विचार नहीं करते । जब उल्लेख पाते हैं, उनमे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता ब्रह्मचारी जी 'जैन-बौद्ध-तत्वज्ञान' जैसी महस्व पर्ण है कि अस्तित्व के पूर्ण विनाशकी अवस्था ही निर्वाण पुस्तक लिखने बैठे, तब उन्हें बौद्ध शास्त्रोंका काफी है।...तथा अग्निके बुझनेकी जो निर्वाणसे उपमा दी समय तक अभ्यास अवश्य करना चाहिये था। उनको. गई है, वह शन्यत्व प्रभावको व्यक्त करनेका सबसे बौद्ध शास्त्रों में पारमा, मोच पादिके सम्बन्ध जो जोरदार तरीका है।
अनेक प्रकारके भिन्न भिन्न उल्लेख पाते हैं, उन सबको म यहां यह बता देना चाहते हैं कि हरेक धर्म एकत्रित कर उनपर विचार जरूर करना चाहिये था। और दर्शनमें अलगर विशेषताय हुआ करती हैं। जैसे बादमें जैनधर्मसे मिलान करनेकी जिम्मेवरीका काम वेदान्तकी विशेषता ब्रह्मवाद है, जैनदर्शनकी स्याद्वाद अपने सिर पर उठाना उचित था । अन्तमें हम यह भी है, वैसे ही बौद्ध धर्मकी विशेषता वणिकवाद और बतादेना चाहते हैं कि इस विषयकी चर्चा करनेमें हमारा शम्यवादमें ही है। जैसे ब्रह्मवाद और स्याद्वादके निकाल जरा भी अन्यथा भाव नहीं है। बल्कि ब्रह्मचारीजीके देने पर वेदाम्ल और जैनदर्शन में कुछ नहीं रह जाता, प्रति हमारा बहुत प्रादरका भाव है । हम यही चाहते वैये ही क्षणभंगवाद और शन्यवादके निकाल देने पर हैं कि ब्रह्मचारी जी अपने भाग्रहको छोड़ दे। जैन
इधर्ममें कुछ नहीं रहता। इतना ही नहीं, बल्कि और बौद्ध धर्म एक नहीं हैं-कमम्मे कम प्रारमा और नषाद और शम्यवादके सिद्धांत बौदर्शनमें बहुत निर्वाण सम्बन्धी मान्यताएं तो उनकी बहुत ही मिन्न अच्छी तरह 'फिट' होते हैं। हम इन वादोंकी परस्पर हैं।' यदि ब्रह्मचारीजी इस बानको मान जाएँ तो तुलना अवश कर सकते हैं, लेकिन ब्राह्मवाद, शन्यवाद हम अपना परिश्रम सफल समझेगे।