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[माध, बीर निर्वावसं.
उपाव रागडेषका जय, उसका उपाय समत्व और समत्व यह तो निश्चित है कि शुभचन्द्र और हेमचन्द्र की प्राप्ति ही ध्यानकी मुख्य योग्यता है, ऐसा जो कोटि- दो में से किसी एकके सामने दूसरेका अन्य मौजूद था। कम दिया है वह भीशानावके २१से २७तकके सोंमें परन्तु जबतक शुभचन्द्रका ठीक समय निश्चित् नहीं हो शब्दया और अर्थशः एक-जैसा है। अनित्यादि भाव- जाता, तब तक जोर देकर यह नहीं कहा जा सकता नामोंका और अहिंसादि महावतोंका वर्णन भी कमसे कि किसने किसका अनुकरण और अनुवाद किया है। कम शैलीकी दृष्टिसे समान है। शब्द-साम्य भी जगह 'उक्तं च' श्लोकोंकी खोज करते हुए हमें मुद्रित जगह दिखाई देता है। नमूने देखिए- ज्ञानार्णवके २८६ पृ. (सर्ग २६) में नीचे लिखे दो किम्पाकफलसंभोगसग्निभ तद्धि मैथुनम्। श्लोक इस प्रकार मिलेमापातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् । उक्तं च श्लोकदयं
-शानार्णव पृ० १३४ समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पुरकः । रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुंभकः ।। किम्पाकफल-संकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७॥ यत्कोष्टादतियत्नेन नासा ब्रह्मपुरातनैः ।
-योगशास्त्र दि० प्र० बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः॥ विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम्। और यही श्लोक हेमचन्द्रके योगशास्त्रके पांचवें यस्य चित्र स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥३ प्रकाशमें नं० ६ और ७ पर मौजूद है। सिर्फ इतना स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिः पथ इवाभलाः। अन्तर है कि योगशास्त्रमें 'नाभिमध्ये' की जगह 'नाभिसमीर इव निःसङ्गाः निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥१५ प ' और 'पुरातनैः' की 'पुराननैः' पाठ है ।
-शनार्णव पृ०८४-८६ इससे यह अनुमान होता है कि ज्ञानार्णव योगविरतः कामभोगेभ्यःस्वशरीरेऽपि नि:स्पृहः। शास्त्रके बादकी रचना है और उसके कर्ता ने इन संवेगहनिमग्नः सर्वत्र समता श्रयन् ॥५ श्लोकोको योगशास्त्र परसे ही उठाया है । परन्तु हमें सुमेरिव निष्कम्पः शशीवानन्दायकः। इस पर सहसा विश्वास न हुआ और हमने शानार्णवसमीर इब निस्संगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥१६ की हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज की।
-योगशास्त्र सप्तम् प्र. बम्बईके तेरहपन्थी जैन मन्दिरके भंडारमें शाना. प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में र्णवकी एक १७४७ साईजकी हस्तलिखित प्राचीन हना। विविध विषयों पर उन्होंने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी प्रति है, जिसके प्रारम्भके ३४ पत्र (स्त्रीस्वरूपप्रतिरचना की थी। योगशास्त्र महाराजा कुमारपालके पादक प्रकरण के ४६ पद्य तक) तो संस्कृत टीकाकरनेसे रचा गया था और उनका कुमारपालसे अधिक सहित हैं और आगे के पत्र बिना टीकाके है। परन्तु उनके निकटका परिचय वि० सं० १२०७ के बाद हुआ था। नीचे टीकाके लिए जगह छोड़ी हुई है । टीकाकर्ता अतएच योगशास्त्र विक्रम संवत् १२०७ से लेकर कौन है, सो मालूम नहीं होता। वे मंगलाचरण श्रादि १२२६ तकके बीच के किसी समयमें रखा गया है। कुछ न करके इस तरह टीका शुरु कर देते हैं