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अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण १
नामका ३२ वाँ सूत्र श्रागया है।
पुरवीमो छत्ताइछत्तसंगणा' इत्यागमात् ।" । दूसरी प्रतियोंमें बढ़े हुए सूत्रोंकी बाबत जो यह ग-"केचिज्जडाः 'स विविध' इत्यादिस्वाति कहा जाता है कि वे भाष्यके वाक्याँको ही गलती सूत्र न मन्यते ।" समझ लेने के कारण सूत्रोंमें दाखिल होगये हैं, वह यहाँ ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर प्राचार्योको लक्ष्य 'सम्यक्वंच सूत्रकी बाबत संगत मालम नहीं होता क्योंकि करके कहे गये हैं। पहले वाक्यमें कहा है कि 'कुछ लोग पूर्वोत्तरवर्ती सूत्रोंके माध्यमें इसका कहीं भी उल्लेख नहीं प्राहारकके निर्देशात्मक सूत्रस पूर्व ही "तेजसमपि" है और यह सूत्र दिगम्बरसूत्रपाठमें २१ वे नम्बर पर ही यह सूत्र पाठ मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं; क्योंकि पाया जाता है। पं० सुखलालजी भी अपने तत्त्वार्थसूत्र- ऐसा होने पर श्राहारक शरार लब्धि जन्य नहीं ऐमा भ्रम विवेचनमें इस सूत्रका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उत्पन्न होता है, आहारककी तो लब्धि ही योनि है ।' श्वेताम्बरीय परम्पराके अनुसार भाज्यमें यह बात सम्य. दूसरे वाक्यमं बतलाया है कि कुछ लोग 'धर्मा वंशा' स्त्वको देवायुके श्रास्रवका कारण बतलाना) नहीं है। इत्यादि सूत्रको जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है।' इससे स्पष्ट है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ श्वेताम्बरमम्प्रदाय- साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकभूमियोंके दूमरे में बहुत कुछ विवादापन्न है,और उसकी यह विवादापन्नता नामावाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त ३१ वे सूत्रके न होनेसे आगममं नरकभूमियों के नाम तथा संस्थानके उल्लेख
और भी अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि इस सूत्रपर भाष्य वाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामों भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली वाले सूत्रको न मानना अयुक्त है ।' परन्तु यह नहीं उम भाग्यप्रतिम होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास बतलाया कि जब सूत्रकारने 'रत्नप्रभा' आदि नामांके करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने द्वारा सप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्रमें कर प्रक्षित समझा होगा । अन्यथा,यह नहीं होसकता कि जो दिया है तब उनके लिये यह कहां लाज़िमी आता है टिप्पणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामांका भी उल्लेग्व त्राता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्य- एक दूसरे सूत्र-द्वारा करें । इससे टिप्पणकारका यह हेतु मान होते हुए उसके किसी सूत्रको छोड़ देवे। कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध
(४) बढ़े हुए बाज़ सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके श्वेताम्बराचार्योंने भी उक्त 'धर्मा वंशा' आदि सूत्रको कुछ वाक्य इस प्रकार हैं:
नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी +-"केविश्वाहारकनिर्देशान्पूर्व "तैनसमपि" लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्यमें उन प्राचार्यों इति पाउं मन्यते, नैवं युक्तं तथासल्पाहारकं न लब्धि को 'जडबुद्धि' ठहराया है जो "स द्विविधः" इत्यादि पमिति भ्रमः समुत्पत्ते, भाहारकस्य तु जन्धि- सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'श्रादि' शन्दका अभिप्राय देवपोनिः।"
'अनादिरादिमांच,' 'रूपिचादिमान,' 'योगोपयोगी -"केपितु धर्मावंशेत्यादिसूत्रं न मन्यते तदसत्। बीवेषु,' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'स दिविषः' सूत्र'धम्मा सा सेवा प्रबनरि । मषा प माधवई, मामेहिं सहित दिगम्बराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं।