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[पौर, पौर-विच
बरालपी प्राकाथमें सूर्य के समान थे। साथ ही, सिद्धांत, गहु के साथ मंगल, कम्पषिों या चन्द्रमा मीनराशि बंद, ज्योतिष, माणऔर मायाको विक्षया और एकमासिन र जगतुंगदेव (गोविन्द शास्त्रोंमें वे निपुर्ण थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, तृतीय) प्रासन छोड़ चुके थे और उनके उत्तराधिकारी बीरसेनके दीक्षागुरु चन्द्रसेनाचार्य के शिष्य पावली. राका बोवणाराय (अमोघवर्ष प्रथम) जो कि नरेन्द्रचूड़ाथे और इसलिये उनकी गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्य मणि थे, राज्यासनपर प्रारुढ हुए उसका उपभोग से प्रारम्भ होती है एलाचार्यसे नहीं। एलाचार्य के कर रहे थे। प्रशस्तिही कामापात्रो खेसकोंकी कृपाविषयमें यह मी, नहीं कहा जा सकता कि वे से कोई कोई पद अशुद्ध पाये जाते हैं। प्रो० हीरालाल पंचस्तपान्वयमें उत्पन्न हुए थे-वे मात्र सिद्धान्त- जीने भी, 'धवला' का सम्पादन करते हुए उनका विषयमें वीरसेनके विद्यागुरु थे, इतना ही यहां स्पष्ट अनुभव किया है और अपने यहांके प्रवीण ज्योतिर्विद जाना जाता है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें उन्हें चित्रकूट- श्रीयुत पं० प्रेमशंकरजी दबेको सहायतासे प्रशस्तिके पुरका निवासी लिखा है, इससे भी वे पंचस्तूपाम्बयी ग्रहस्थिति-विषयक उल्लेखोंका जांच पड़ताल के साथ मुनियोंसे भिन्न जान पड़ते हैं।
संशोधनकार्य किया है, जो ठीक जान पड़ता है। साथ प्रशस्तिकी शेष गाथाओं में से दूसरीमें 'वृषभसेन' ही, यह भी मालूम किया है कि चूंकि केतु हमेशा राहुसे का, तीसरीमें अईसिद्धादि परमेष्ठियोंका अन्त्यमंगल- सप्तम स्थान पर रहता है इसलिये केतु उस समय के तौर पर स्मरण किया गया है और अन्तकी चार सिंहराशि पर था। और इस तरह प्रशस्तिपरसे ग्रन्थकी गाथानोंमें टीकाकी समाप्तिका समय, उस समयकी जन्मकुण्डलीकी सारी ग्रहस्थिति स्पष्ट हो जाती है । अस्तु, राज्यस्थितिका कुछ निर्देश करते हुए, दिया है-अर्थात् यह पूर्ण प्रशस्ति अपने संशोधित रूप-सहित, जिसे यह बतलाया है कि यह धवला टीका शक संवत् ७३८ रैकट (कोष्ठक)में दिखलाया गया है, श्राराकी प्रतिके में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशीके दिन उस समय समाप्त अनुसार इस प्रकार हैकी गई है जब कि तुलालग्नमें सूर्य यहस्पतिके साथ था बस्स से(प)साएण मए सिद्धतमिदं हि पहिबहुंदी तथा बुधका वहाँ अस्त था, शनिश्चर धनुराशिमें था,
(विहिद)। वापसे पाया जाता है। इसीसे उन मुनियों के वंशकी महु सो एलाइरियो पसियउ परवीरसेणस्स ॥१॥ 'पंचस्तूपामय' संज्ञा पदी; परन्तु ये पंचस्तूप कहां थे, वंदामि उसहसेणं तिहुवाविव-बंधवं सिवं संतं । इसका कोई ठीक पता नहीं चलता । साथ ही, उक्त बास-किरणावहासिय-सयत-पर-तम पंवासियं विलु।२ तावतारमें उद्धृत पुरातन वाक्योंके "पंचस्तृप्यास्ततः पसंतपदो (परहंतो) भगवंतो सिदा सिदापसिसेनाः""पंचस्तूप्यास्तु सेनाना" जैसे अंशोंसे यह भी बवाइरिया । साहू साहू प महं पसी(सि )यंतु बाना बाता है कि पंचस्तूपान्वष सेगसंघका ही विशेष भरवा सम्वे ॥३॥ अजयविसिस्सेयुज्जवकम्मस्स अथवा नामान्तर है। वीरसेनकी गणना भी सेनसंघके चंदसेखस्स । ता बत्वेय पंचत्यूदवसपमाबुवा प्राचार्यो में ही की जाती है-सेवसंपकी पहापनीय मुखिया ॥१॥ सिद्धत-पंद-बोरस-पाथरव-पमान उपनामका निर्देश है।
सत्य विवेव । महारएव का लिहिएसा बीरसेवेचा
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