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बबादि भूत-परिचय
समझा है और इस तरह पर एक गहन विषयके सैद्धा. के बड़े भक्त थे, यह पाया जाता है। परन्तु जिनसेनन्तिक ग्रन्थकी टीका पर एक प्रसिद्ध और बहुमाननीय स्वामी महाराज अमोघवर्षको किस गौरवमरी शिसे विद्वानके नामकी ( सम्पादनकी ) मुहर प्राप्त करके उसे देखते थे, उनपर कितना प्रेम रखते थे और उनके विशेष गौरवशालिनी और तत्कालीन विद्वत्समा जके गुणोपर कितने अधिक मोहित अथवा मुग्ध थे, इस बात लिए और भी अधिक उपयोगिनी तथा आदरणीया का पता अभी तक बहुत ही कम विद्वानोंको मालम बनाया है। यही 'श्रीपान-सम्पादिता' विशेषणका होगा, और इसलिये इसका परिचय पाठकोंको प्रशस्तिरहस्य जान पड़ता है। और इसलिये इसमें यह स्पष्ट है के निम्न लिखित पद्यों परसे कराया जाता है, जिसमें कि एक सम्पादकको किसी दूसरे विद्वान लेखककी कृति- गुर्जरनरेन्द्र ( महाराज अमोघवर्ष ) का यशोगान करके का उसके इच्छानुसार सम्पादन करते समय, जरूरत उन्हें अाशिर्वाद दिया गया हैहोनेपर, उसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन, स्पष्टीकरण, गर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तःपतिता शशायाः । भाषा-परिमार्जन और क्रम-स्थापन आदिका जो कार्य
गुसैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीतिः ॥१॥ करना होता है, यथासम्भव और यथावश्यकता, वह गुर्जरयशःपयोधौ निमज्जतीन्यो विवरण साम । सब कार्य इम टीकामें विद्वद्रत्न श्रीपाल द्वारा किया गया कनमखिमलिनं मन्ये धाबा हरिलापदेशेन ॥३॥ है। उनकी भी इम टीकामें कहीं कहीं पर ज़रूर कलम भरत-सगरादि-भरपति पशासितारानिभेव संहत्य । लगी हुई है । यही वजह है कि उनका नाम मम्पादकके गुर्जरयशसो मदनानावकाशो जगत्सृजा नूनम् ॥१४ रूपमें खास तौरसे उल्लेखिन हुआ है । अन्यथा, श्रीगल इत्यादिमकक्षनृपनीनतिपशष्य पयः पयोधिकेनेत्या आचार्यने पूर्वाचार्योकी सम्पूर्ण टीकाका एकत्र संग्रह
गुर्जरनरेन्द्र कीनिःस्थेयावाचम्बनारमिह भुयने ॥ १५ करके उस मंग्रहका नाम 'जयधवला' रक्खा, हम कथन
इन पत्रों में यह बतलाया और कहा है कि 'गुर्जर. की कहींसे भी उपलब्धि और पुष्टि नहीं होती।
नगेन्द्र (महागन अमाचलर्स) की शशांक-शुभ्रीतिजिनसेनके ममकालीन विद्वानोग पापेन, देवपेन,
के भीतर पड़ी दुई गमनपति ( चन्द्रगुम ) की कीति और रविचन्द्र नामके भी कई विद्वान हो गये हैं । यह
गुप्त ही होगई है-छिप गई है-और शक गजाकी बात ऊपर उद्धृत किये हुए प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे
• कीति मच्छरकी गुन गुनाहटकी उपमाको लिए हुए है। ध्वनित होती है।
मैं ऐमा मानता हूँ कि गुर्जर-नरेन्द्र के यशरूपी क्षीरसमुद्र में गुर्जर नरेन्द्र महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन
इबे हुर. चन्द्रमामें विधानाने हरिण (मृगछाला ) के स्वामीके शिष्योंमें थे, इस बातको स्वयः जिनसेनने अपने - पाश्चर्याभ्युदयके संधि-वाक्योंमें प्रकट किया है और वह पच इस प्रकार हैगुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण-प्रशस्तिके एक पद्ममें यह यस्य प्राशुनखांशुजालविमरद्वारान्तराविभवत, सूचित किया है कि महाराज अमोधवर्ष श्रीजिनसेन- पताम्माजरजःपिशंगमुकुटप्रत्यपरबद्युतिः । स्वामीके चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर अपने रे संस्मता स्वममोघवर्षनृपतिः पृतोऽहमधेत्यलं, पवित्र मानते थे। इससे अमोघवर्ष जिनसेन- स श्रीमान जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ॥