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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता
दूसरेसे तीसरेके, तीसरेसे चौथेके, चौथेसे पांचवेंके, अफरीका के हब्शियों की अन्य भी अनेक जातियां पांचवेंसे छठेके और छठेसे सातवेंके नोच हैं; परन्तु है, जिनमें एक दूसरेकी अपेक्षा बहुत कुछ नीचताये सब नारकी भी नीच गोत्रकी ही पंक्तिमें रखे गए. ऊँचता है । यहां हिंदुस्तान में भी अनेक ऐसी जातियां है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य थीं और कुछ अब भी हैं जो मनुष्यहत्या और लूटमारगति रूप जो बटवारा संसारीजीवोंका हो रहा है गोत्रकर्म को ही अपनी जातिका गौरव समझते हैं । भील, गौंड के अनुसार उसमें से एक एक गति के मारे ही जीव कोल, संथाल और कोरकू आदि जो जंगलों में रहते हैं ऊँच वा नीचरूप एकही पंक्ति में रक्खे गए हैं । सब हो और खेती-बाड़ी वा मेहनत-मजदूरी करते हैं वे उन नारकी तथा सब ही तिर्यच नीचगात्री और सबही देव डकैतोंसे तो श्रेष्ठ हैं, तो भी नगर में रहने वालोंसे तो उच्चगोत्री, ऐसा ठहराव हो रहा है।
नीच ही हैं । नगरनिवासियोंमें भी कोई चांडाल हैं, कोई
विष्ठा उठाते हैं, कोई गंदगी साफ़ करते हैं, कोई मरे अब रहे मनुष्य, उनमें भी अनेक भेद हैं। अफ- हुए पशुओंका चमड़ा उतारनेका काम करते हैं, अन्य रीका आदिके हबशी तथा अन्य जंगली मनुष्य कोई भी अनेक जातियां हैं जो गंदा काम करती हैं, कोई तो ऐसे हैं जो आग जलाना तक नहीं जानते, स्त्री-पुरुष जाति धोबीका काम करती है, कोई नाईका, कोई सब ही नंगे रहते हैं, जंगल के जीवों का शिकार करके लुहारका, कोई बाढीका कोई सेवा-चाकरीका, कोई कच्चा ही खाजाते हैं, लड़ाई में जो बैरी हाथ आ जाय रोटी पकानेका, कोई पानी भरनेका,कोई खेती,कोई-कोई उसको भी मारकर खाजाते हैं; कोई ऐसे हैं जो मनुष्यों वणज, व्यापार का, कोई ज़मींदार है और कोई सरदार को खाते तो नहीं है, किंतु मनुष्यांका मारना ही अपना इत्यादि । अन्य देशों में भी कोई राजघराना है, कोई मनुष्यत्त्व समझते हैं, जिसने अधिक मनुष्य मारे हो और बड़े बड़े लार्डों और पदवी-धारियोंका कुल है, कोई जो उनकी खोपरियां अपने गलेमें पहने फिरता हो उस धर्म-उपदेश के हैं, कोई मेहनत मजदूरी करने वालोंका ही की स्त्रियां अधिक चाव से अपना पति बनाती हैं: कुल है कोई पूँजीपतियोंका, इत्यादि अनेक भेद-प्रभेद कोई ऐसे हैं जो माता पिताक बूढ़े होने पर उनकी मार हो रहे हैं । इस प्रकार मनुष्य जातिम भी देवों और डालते हैं। कोई ऐसे हैं जो अपनी कमजोर सन्तान को तियचों की तरह एक से एक ऊँचे होते होते ऊँच-नीच मार डालते हैं । यहां इस आर्यवर्तमें भी उम्रवर्ण और की अपेक्षामे हज़ार श्रेणियां हो गई हैं; परन्तु मनुष्य उच्चगोत्रका अभिमान रखने वाले क्षत्रिय गजपत अपनी जातिकी अपेक्षा वे मब एक ही हैं। जैसा कि आदि कन्याओं को पैदा होते ही मार डालते थे और इसको पुराण के निम्न वाक्य में प्रकट है .. अपने उच्चकुल का बड़ा भारी गौरव समझते थे: ब्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों ही उच्चवर्ण और उच्चगोत्रक
मनुष्यजातिरकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।
वृत्तिभेदा हि तद्भदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते ।। माननीय पुरुष अपने घरकी स्त्रियांको विधवा होने पर पति के साथ जल मरने का प्रोत्साहन देते थे और उनके अर्थात् --मनुष्यजाति नामा नाम कर्म के उदय से जल मरने पर अपना भारी गौरव मानत थे। पैदा होने के कारण समस्त मनुष्यजाति एक ही है---