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सत्यशरण सदैव सुखदायी
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तो चलो मेरे साथ । मैं वहाँ से लौटकर राजा के पास चलूंगा।" सिपाहियों ने मान लिया । महोत्सव से लौटकर घाटम सीधा राजा के पास पहुँचा। राजा के पूछने पर सारी घटना सच-सच कह दी। राजा ने चकित होकर सत्यनिष्ठ घाटम के चरणों में नमन किया। फिर उसे बहुत-सा धन देना चाहा, लेकिन उसने लेने से साफ इन्कार कर दिया । सिर्फ एक घोड़ा गुरुजी की सेवा में जाने के लिए स्वीकारा । तब से घाटम ने चोरी करने का त्याग कर दिया।
यह है, सत्यशरणागत व्यक्ति की निर्भयता और अन्य दुर्गुण के छूट जाने का ज्वलन्त उदाहरण !
सत्य की शरण में जाने से आध्यात्मिक लाभ सत्य को परमात्मा माना गया है, इसलिए जिसके हृदय में सत्य भगवान विराजमान है, उसकी प्रत्येक बाह्य और आभ्यन्तर क्रिया सत्य से प्रेरित एवं संचालित होती है । सत्यशरण ग्रहणकर्ता व्यक्ति के भीतर सत्य के रूप में जो परमात्मा अन्तर्यामी है, वह कामधेनु के समान है । अगर सत्यनिष्ठ साधकं पूर्णरूप से उसकी शरण में चले जाएँ, उसकी आज्ञा के अधीन चलें, प्रत्येक क्रिया उसी की प्रेरणा से करें तो सत्य उनकी शुभेच्छाओं-सत्यप्रेरित शुभ संकल्पों को पूर्ण करेगा। इस युग में महात्मा गांधी का उदाहरण हमारे सामने प्रत्यक्ष ही है। जनकल्याण के उनके प्राय: सभी संकल्प पूर्ण होते गये-अस्पृश्यतानिवारण, स्वराज्य, सामूहिक सत्याग्रह, ग्रामोद्योग, खादी आदि कार्यक्रम समाज में सफलतापूर्वक प्रविष्ट होते गए। इसके अतिरिक्त सत्य की शरण में जाने से सत्य के साक्षात्कार की जो शुभेच्छा है, वह पूर्ण होगी। सत्य की शरण में जाने का एक फल यह भी है कि उससे व्यक्ति की चित्तशुद्धि होती है। चित्त में जो मलिनताएँ हैं, वे सत्य के संस्पर्श से दूर हो जाती है। इस प्रकार भीतर प्रकट परमात्मा-सत्य की शरण लेने से मुक्त चिन्तन होगा, अन्य आध्यात्मिक गुणों का विकास होगा।
व्रतभंग होने पर भी सत्यनिष्ठा का प्रभाव कई बार कोई सत्यनिष्ठ साधक भूल से या मोहवश किसी व्रत या नियम को भंग कर देता है, परन्तु अगर उस साधक की सत्यशरण पक्की है तो सत्याधिष्ठायक देव उसका जो प्रभाव व्रत या नियम के भंग होने से पहले था, उसे कम होने नहीं देते । उसका प्रभाव बदस्तूर चलता है।
एक सत्यव्रती एवं शीलनिष्ठ सेठ के शील के प्रभाव से सैकड़ों रोगी और पीड़ित व्यक्ति उसके यहाँ आते थे और झरोखे में बैठे हुए उस सेठ के दर्शन करते ही वे रोग-शोकमुक्त हो जाते थे । सेठ के शील का यह अनूठा प्रभाव दूर-दूर तक फैला हुआ था । संयोगवश एक दिन मोहवश उसका शील भंग हो गया । इस भूल का उसके हृदय में बहुत पश्चात्ताप हुआ। रह-रहकर मन में यह अफसोस होता था कि नियत तिथि पर हजारों दुःखी लोग आएँगे, उन्हें मुंह कैसे दिखाऊँगा। इसी बीच वहाँ का
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