________________
लिखा है कि 'केवल सत्य की दृष्टि या आत्मा की दृष्टि से विचारें तो शरीर भी परिग्रह है।' इसके अतिरिक्त धन-धान्य, मकान, खेत आदि समस्त भोगोपभोग की सामग्री भी परिग्रह ही है ।
इस तरह दुनियाँ में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा कि जो परिग्रह से पूर्णतः मुक्त हो । पूर्णतः नग्न रहने वाला साधु भी परिग्रह से मुक्त नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वह भी शय्या - तख्त, घास-फूँस आदि स्वीकार करता है, शौच के लिए कमण्डल रखता है, जीव- रक्षा के लिए मोरपिच्छी रखता है, पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए ग्रन्थ ग्रहण करता है, आहार- पानी ग्रहण करता है, शिष्य - शिष्याओं को स्वीकार करता है । इसके अतिरिक्त शरीर तो उसने धारण कर ही रखा है और वह प्रति समय कर्मों को ग्रहण भी करता है । अतः यदि वस्तु-ग्रहण करना परिग्रह का अर्थ माना जाए, तो दुनियाँ में कोई भी व्यक्ति अपरिग्रह व्रत की साधना नहीं कर सकेगा ।
मनुष्य जब तक संसार में रहता है, तब तक वह आवश्यकताओं से घिरा रहता है । आध्यात्मिक साधना में संलग्न व्यक्ति को भी अपने शरीर को स्वस्थ एवं गतिशील रखने तथा आत्मा का विकास करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता रहती ही है । ऐसा कभी भी सम्भव नहीं हो सकता कि शरीर के रहते उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता न हो यह बात अलग है कि व्यक्ति आवश्यकता को कामना का, इच्छा का रूप दे दे आवश्यकता की पूर्ति तो हो सकती है कामना, इच्छा एवं आकांक्षा की पूर्ति होना कठिन है । इच्छाओं का जाल
हुए
1
।
परन्तु
6
आवश्यकता की पूर्ति
तो हो सकती है
परन्तु कामना, इच्छा एवं आकांक्षा की पूर्ति
होना कठिन है।