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इच्छाओं की पूर्ति कठिन परिग्रह क्या है ? परिग्रह का शाब्दिक अर्थ है- वस्तु का ग्रहण करना । इस दृष्टि से केवल सम्पत्ति एवं साधन ही नहीं, बल्कि जीवन के लिए आवश्यक पदार्थ और यहाँ तक कि शरीर एवं कर्म भी परिग्रह की सीमा में आयेंगे । यदि वस्तु ग्रहण करना परिग्रह है, तो उसके तीन भेद किये जा सकते हैं- १. शरीर, २. कर्म और ३. उपधि- भोगोपभोग के साधन । क्योंकि हमारी आत्मा ने शरीर को ग्रहण कर रखा है और संसार में रहते हुए कोई भी ऐसा समय नहीं आता कि हम शरीर से पूर्णतः मुक्त हो जायें । एक गति से दूसरी गति में जाते समय स्थूल शरीर नहीं रहता परन्तु सूक्ष्म-तेजस् और कार्मण शरीर तो उस समय भी आत्मा के साथ लगा रहता है। इसी तरह वह प्रति समय, प्रति क्षण कर्मों को भी ग्रहण करता रहता है । संसार अवस्था में एक भी समय ऐसा नहीं आता, जब कि नये कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते हों । भले ही तेरहवें गुणस्थान में भावों की पूर्ण विशुद्धता एवं राग-द्वेष का अभाव होने के कारण कर्मों का स्थिति और अनुभाग बन्ध न होता हो, भले ही वे पहले समय में आकर दूसरे समय में ही नष्ट हो जाते हों, परन्तु फिर भी आते अवश्य हैं । शरीर एवं कर्मों का पूर्णतः अभाव सिद्ध अवस्था में ही होता है, संसार अवस्था में नहीं । अतः आत्मा ने शरीर को भी ग्रहण कर रखा है, और वह प्रति समय कर्म भी ग्रहण करती रहती है । इसलिए शरीर और कर्म भी परिग्रह में गिने गये हैं । गांधीजी ने भी