Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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स्वरूप रत्न की प्राप्ति हो सकती है । सम्यक्त्वी कभी कदा- याद रखो, एक बार जरूरतों को बढ़ा देने पर फिर ग्रह नहीं करता, वह सत्याग्रही अथवा सत्य-ग्राही होता है। कम करना बड़ा कठिन होगा। जरूरतें बढ़ाने से लालसाएँ ज्ञान नहीं तो दया कैसे ?
बढ़ती रहती हैं। लालसाएँ ही संसार का मूल कारण हैं।
एक साधक ने कहा है-- जात न जाणे जीव की धर्म कणां सू होय ।
चाह चूड़ी चाह चमारी, चाह नीचन में नोच । लोग अहिंसा की बात करते हैं। किन्तु क्या बातों से
जीव सदा ही ब्रह्म है, एक चाहन न होवे बीच ॥ अहिंसा का पालन हो सकता है, जीव दया के बिना अहिंसा कैसे होगी? जीवों की उत्पत्ति के स्थान कौन-कौन से हैं ?
धीरा सो गम्भीरा किन-किन कारणों से जीव वध होता है इन बातों को अच्छी गम्भीरता, मानव-जीवन को महान् बनाने वाला गुण तरह नहीं समझे वहाँ तक अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है। जैसे प्रतिदिन खाये जाने वाले भोजन को हम पचाते है ? पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पति हैं इस तरह जीवन में कई बातें ऐसी भी होती हैं जिन्हें काय, त्रसकाय । ये जीवों के छह विभाग हैं इन्हें ठीक-ठीक पचाना चाहिये। यह जरूरी नहीं कि हर बात का बदला समझना चाहिए और अनावश्यक हिंसा से बचकर मर्यादित लिया ही जाये या वह कही ही जाये। कई बार चञ्चलता जीवन बिताया जाये ! तभी अहिंसा की कुछ साधना हो में कही गई बात या किये गये कार्य पर फिर पश्चात्ताप सकती है।
करना पड़ता है। चञ्चलता में अन्ट-सन्ट बक देना अधरामानसिक हिसा से भी बचो
पन है एक राजस्थानी कवि ने कहा हैमन, वचन और काया इन तीनों योगों से हिंसा होती
"भरिया सो झलके नहीं, जो झलके सो अद्दा ।" है। केवल कायिक हिंसा से ही नहीं, मानसिक और वाचिक
क्रोध, शैतान है हिंसा से भी बचना चाहिए । मन से अनिष्टकारी सोचना
क्रोध पर संयम रखो। क्रोध मानव को शैतान बना तथा अनिष्टकारी वाणी का प्रयोग करना हिंसा है।
देता है । जितने कुकृत्य संसार में हुये वे अधिकांश क्रोध के बड़ा कैसे बनें ?
कारण ही हुये हैं । क्रोधी के जीवन में सर्प से भी भयंकर बड़ा, दाल का बनता है, दाल गल कर, पिसकर, पानी
विष काम करता है। भगवान महावीर ने क्रोध को प्रीति में मिलाकर तेल में तला जाये तब कहीं बड़ा होता है।
का विनाशक और जीवन का शत्रु बताया। उन्होंने तो मानव को भी बड़ा बनने के पहले क्षमाशील, गुणवान
सर्प के डसने पर भी क्रोध नहीं किया। क्रोध से कोई और सहिष्णु बनना चाहिए।
बुराई मिटती नहीं, न क्रोध से कोई सुधार ही होता है ।
अच्छी बात भी क्रोधपूर्वक नहीं कहना चाहिए। क्रोध बकरा और घोड़ा
में कही गई अच्छी बात भी बुरी हो जाती है। बकरा मैं-मैं करता है, वह तलवार के नीचे कटता है।
संभालो और बनाओ! घोड़ा है-है करता है, वह सम्मानित होता है । मानव भी मैं-मैं करता है, वह घमण्डी है । गुणवान तो
धन्ना सेठ ने अपनी चार बहुओं को, पाँच दाने देकर घोड़े की तरह कहते हैं मैं कुछ नहीं, मुझ से बढ़कर और उनकी परीक्षा की। एक बहु ने फेंक दिये, एक खा गई, कई व्यक्ति हैं।
एक ने सम्माल कर रखे और एक ने उन्हें बहुत बढ़ाये ।
जिसने बढ़ाये और सम्भालकर रखे वे दोनों प्रशंसित हुई चाह से ही आह
किन्तु जिसने फेंक दिये या खा गई वे निन्दनीय रहीं। अपनी इच्छाओं को सीमित रखना चाहिए। अत्य- साधु साध्वियों को भी पाँच महाव्रत मिले हैं उन्हें धिक लालसाओं से मानव दु:खी हो जाता है। चाह से सम्भाल कर रखना है । उन्हें नष्ट करने पर दो बहुओं आह पैदा होती है। जीवन में कम से कम जरूरतें रहें, इस के समान वे भी निन्दनीय हैं। जो व्रत नियमशील का तरफ पूरा ध्यान देना चाहिए ।
विस्तार करता है वह सर्वत्र सम्मानित होता है।
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PrivalunarraisuTutoriye
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