Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूक्तियों का सहज प्रस्फुटन हुआ है। एक सूक्ति में भी पूरे जीवन की दिशा को बदलने का सामर्थ्य है -
अभयदाया भवाहि य (१८/११) न चित्ता तायए भासा (६/१०)
संवाद-शैली का भी अपना महत्त्व रहा है। कथ्य की अभिव्यक्ति के लिए रोचक एवं सजीव संवाद उत्तराध्ययन में नजर आते हैं। हरिकेशी और ब्राह्मणों के बीच हुए संवाद से यज्ञ का आध्यात्मिकीकरण, मृगापुत्र और उनके माता-पिता के साथ हुए संवाद से साधु के आचार का प्रतिपादन, अनाथी मुनि और मगध सम्राट् के बीच अनाथ शब्द को लेकर हुआ संवाद-ऐसे कई प्रसंग संवादशैली की उपयोगिता को सिद्ध करते हैं।
उत्तराध्ययन में कई जगह एक जैसे वाक्यों का बार-बार प्रयोग हुआ
'एयमढे निसामित्ता हेऊकारणचोइओ' (९/८ से) 'समयं गोयम! मा पमायए' (१०/१-३६) 'तं वयं बूम माहणं' (२५/१९-२९) 'जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले' (३१/७-२०)
लेकिन ये पुनरुक्ति विषय के स्पष्टीकरण के लिए हुई है, पुनरुक्त दोष नहीं है। उत्तराध्ययन में अनुक्रम बराबर बना हुआ है। पूर्व गाथाओं का प्रभाव प्रसंगतः आगे भी चलता रहता है।
लगभग प्रत्येक अध्याय में निगमनात्मक गाथा मिलती है। यथा'चत्तारि परमंगाणि......' (३/१), 'एए परीसहा......' (२/४६) इत्यादि।
व्याकरण की दृष्टि से उत्तराध्ययन में अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट प्रयोग प्रयुक्त हुए हैं -
जत्तं (१/२१) (संस्कृत रूप यत् तत्) 'जं' और 'तं' दो शब्द है। ज के बिन्दु का लोप और त को द्वित्व हुआ
है।४८
दम्मतो (१/१६) दमितः (संस्कृत)
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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