Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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शब्दों के प्रयोग अनुसंधित्सु को आह्वान कर रहे हैं अपने उद्भव की कहानी बताने।
अनुशासन की मुक्ता सुरक्षित कैसे रहे? गुरु-शिष्य के संबंध को मधुर कैसे बनाया जा सकता है-'विणयसुयं' अध्ययन इसका स्पष्ट निदर्शन है। इसके द्वारा अनुशासन के महत्त्वपूर्ण सूत्र प्राप्त कर उच्छृखलवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, विनय का बोध प्राप्त किया जा सकता है।
चार्वाक मत में आत्मा और पुनरागमन जैसा कोई सिद्धांत नहीं हैं। वे कहते हैं
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥
भस्मीभूत देह का पुनः आगमन नहीं-इस बात का निरसन 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' (४/३) जैसी सूक्तियां, नमि (अध्ययन ९), भृगुपुत्र (अध्ययन १४), मृगापुत्र (अध्ययन १९) के पूर्वजन्म की स्मृति के प्रसंगों से एवं चित्त-संभूत (अध्ययन १३) के छः-छः जन्मों के घटनाप्रसंगों से होता है।
जातिस्मृति कैसे होती है, इसका कारण भी निर्दिष्ट हैउवसंतमोहणिज्जो-मोहकर्म की उपशांतता (९/१) अज्झवसाणम्मि सोहणे-अध्यवसान की शुद्धि (१९/७)
शाश्वतवादी आयुष्य को निरुपक्रम (काल-मृत्यु) मानते हैं। उनके अनुसार ‘स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा' धर्माचरण जीवन के प्रारंभ में ही क्यों, अन्तकाल में भी किया जा सकता है। शाश्वतवादियों के इस मत का निराकरण करते हुए उत्तराध्ययनकार का कहना है कि पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला अंत में विषादग्रस्त होता है। अतः अन्तिम सांस तक सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों की आराधना करें (४/९, १३)।
अज्ञानियों के अकाममरण एवं पण्डितों के सकाममरण की चर्चा हर सज्जन को अकाम-मरण से दूर व भक्तपरिज्ञा, इंगिणी या प्रायोगपगमन में से किसी एक को स्वीकार कर सकाममरण के लिए उत्प्रेरित करती है।
मंत्र और औषधियों के विशारद शास्त्र-कुशल प्राणाचार्य अनेक उपचारों के बावजूद भी जिस भयंकर वेदना को दूर नहीं कर सके, उसे दूर करने का
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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