Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 257
________________ आदि अध्ययन तत्त्व की गहराइयों में ले जाकर साधना का पथ प्रशस्त करने वाले हैं। उत्तराध्ययन के रचना काल में शैलीविज्ञान जैसी कोई अध्ययनप्रविधि समीक्षाजगत में उद्भावित थी या नहीं किन्तु उत्तराध्ययन के शैलीवैज्ञानिक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि शैलीवैज्ञानिक प्रतिमानों की विशद एवं सार्थक व्याख्या उत्तराध्ययन में प्राप्त है। विशिष्टशब्द-संरचना, प्रतीक, बिम्ब, साभिप्राय व्याकरणिक विचलन, क्रिया विचलन, विशेषण विचलन, अव्यय विचलन, प्रबन्ध विचलन आदि से उत्तराध्ययन पर्याप्त समृद्ध है। इसी प्रकार दर्शन, संस्कृति, शैलीविज्ञान आदि के तत्त्वों से भरपूर यह ग्रंथ अनेक नये आयामों को उद्घाटित करने वाला है। उपयोगिता का मानदंड पुरातनता या नूतनता नहीं है। जो बुद्धि, मन और भावनाओं को रस से आप्लावित करके, जीवन को लक्ष्य की दिशा में गतिशील कर दे वही काव्य है। कालिदास के शब्दों में पुराणमित्येव न साधु सर्वम्, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढः पर प्रत्यनेय बुद्धि।। उत्तराध्ययन के संदर्भ में इस सच्चाई को साक्षात् किया जा सकता है। शाश्वत सत्य का स्फुरण सर्वज्ञ ही कर सकते हैं। इन्द्रिय चेतना में जीने वाले व्यक्ति की सोच कुछ सीमा तक ही उसे ग्राह्य कर सकती है। उसकी सोच अध्यात्म को भी तर्क व परीक्षण की दृष्टि से देखें यह उत्कर्षक नहीं है। इसकी अपेक्षा सर्वज्ञ के द्वारा उदाहृत पथ पर चल कर वह स्वयं सर्वज्ञ बन शाश्वत सत्य को उपलब्ध कर सकता है, शाश्वत सत्य का मार्ग प्रस्तुत कर सकता है। वेद की उक्ति है 'आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः' सब दिशाओं से शुभ ज्ञान मिले। उत्तराध्ययन के अध्ययन से प्राप्त शुभ एवं सम्यक् ज्ञान द्वारा, आधुनिक युग के वातावरण में रहते हुए भी श्रमण-संस्कृति की आत्मा से साक्षात्कार कर हर व्यक्ति बंधन से मुक्ति की दिशा में प्रस्थान कर सकता है। सन्दर्भ - १. बृहदारण्यकोपनिषद्, अध्याय-२, ब्राह्मण-४, पद-५। 240 उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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