Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 253
________________ अणाहो मि महाराय!, नाहो मज्झ न विज्जई (२०/९) में कविकल्पना की निपुणता उक्ति वैचित्र्य को मुखर कर रही है। 'नाथ' शब्द योगक्षेम-विधाता की विस्तृत कल्पना अपने में समेटे हुए है। ऐसे अनेक शब्द उत्तराध्ययन का भाषिक सौंदर्य प्रकट कर रहे हैं। - भारतीय काव्यशास्त्रियों के अनुसार रस का भोक्ता सहृदय है। व्यक्ति के भीतर सुप्त स्थायी भाव परिस्थितियों का योग पाकर रस-निर्मिति में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। शांत, वीर रस-प्रधान उत्तराध्ययन का रस परिपाक प्रत्येक स्थिति को सहृदय तक पहुंचाने में सिद्धहस्त है। मासखमण की उत्कृष्ट तपस्या के पारणे में भिक्षा हेतु पधारे हरिकेशी मुनि की आभा बाह्मणों द्वारा तिरस्कृत होने पर भी शांतरस की सरिता प्रवाहित करती रही। मुनि को देख जातिस्मृति ज्ञान के पश्चात् चित्रपट की भांति संसार के दृश्यों को देख मृगापुत्र का शांतरस का स्थायी भाव प्रबल निर्वेद जाग उठा। श्रामण्य की स्वीकृति प्राप्त करके ही उस सहृदय को आत्मतोष मिला। मृगापुत्र द्वारा नरक आदि का वर्णन बीभत्सता को भी बीभत्स बना रहा था। प्रतिक्षण आशंकित विश्व के लिए अरिष्टनेमि का यह चिंतन जइ मज्झ कारणा एए हम्मिहिंति बहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई।। २२/१९ निरंतर शांतरस की सरिता प्रवाहित कर रहा है एवं युग के लिए 'मित्ति मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई' का अभिनव संदेश दे रहा है। उत्तराध्ययन का आलंकारिक सौंदर्य जितना स्वाभाविक है उतना ही अनुपम है। अनेक उपमाओं से उपमित बहुश्रुत के उपलक्षण आंतरिक शक्ति एवं तेजस्विता को उद्घाटित करने वाले हैं। मृगापुत्र के संदर्भ में इस कथन को दृष्टिगत करें 'रेणुयं व पडे लग्गं निद्भुणित्ताण निग्गओ' (१९/८७) कपड़े पर लगी हुई धूलि की तरह संपत्ति आदि को छोड़कर मृगापुत्र घर से निकल गया साहित्य जगत में अप्रचलित उपमान शैलीविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। __ साहित्यिक सौंदर्य का वैभव यहां प्रचुरता लिए हुए है। धर्म-कथात्मक आख्यानों में हर मोड़ की अपनी विशिष्ट उपयोगिता है। प्रत्येक पात्र पूर्ण रूप 236 उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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