Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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रूप में उभरा है। इसका कारण है-महावीर ने लाढ़ देश में विचरण किया। वहां उन्होंने अनेक कष्ट सहन किए थे। आगे चलकर वह कष्ट-सहिष्णु का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार चेइए वच्छे (नमि राजर्षि का प्रतीक), पत्तं (भिक्षापात्र का प्रतीक), इंदियचोरवस्से आदि प्रतीकात्मक शब्दों के विषय में उत्तराध्ययनकार के ऐसे अनेक अविस्मरणीय अवदान हैं, जिससे साहित्यजगत सदा ऋणी रहेगा। बिम्ब-योजना की दृष्टि से भी उत्तराध्ययन अत्यन्त समृद्ध है। बिम्ब के गुण संश्लिष्टता, मौलिकता, सहजता, सरलता, औचित्य आदि उत्तराध्ययन में सहज स्फूर्त है।
रामचंद्र शुक्ल का कहना है काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिम्ब-ग्रहण अपेक्षित होता है। काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब या मूर्तभावना उपस्थित करना, बुद्धि के सामने कोई विचार लाना नहीं तथा 'कविता' में कही बात चित्र रूप में हमारे सामने आनी चाहिए (चिन्तामणि भाग २ पृ. ४३, ४४)। अरिष्टनेमि, राजीमती के शारीरिक सौंदर्य के वर्णन के प्रसंग में कवि का बिम्ब-विधान पाठक को भी उनके अलौकिक सौंदर्य से अभिभूत कर देता है। राजीमती के सौंदर्य की परिकल्पना में कवि-मानस के चित्र में रथनेमि की विरक्ति को पराभूत कर देने का सामर्थ्य नजर आता है। कामासक्त रथनेमि को धिक्कारते हुए चित्र रूप में राजीमती उपस्थित हो जाती है। उत्तराध्ययन में ऐसे मुहावरों का प्रयोग भी हुआ है जो कम प्रचलित है जैसे
'वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे' 'जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो' 'जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मंदरो गिरी'
ये प्रयोग कवि की कर्तृत्वशक्ति एवं अभिव्यक्ति कौशल को उजागर कर रहे हैं।
'वैदग्ध्य-भंगी-भणितिः' में विदग्धता का अभिप्राय उस निपुणता से है जो कवि की कल्पना से प्रसूत होती है। इसी विदग्धता जन्य विच्छित्तिपूर्ण कथन यहां वक्रोक्ति का सर्जन कर रहा है। सम्राट् श्रेणिक द्वारा अनाथी मुनि को पूछा गया प्रश्न
तरुणो सि अज्जो! पव्वइओ, भोगकालम्मि संजया! (२०/८) इसके उत्तर में अनाथी मुनि का कथन
निकष
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