Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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स्वयं स्त्रीलिंग होने से उपमान भी पक्षिणी चुना है। पिंजरे में सभी सुख प्राप्त पक्षिणी बन्धन की अनुभूति से व्यथित है। उसका मूल स्वभाव है उन्मुक्त गगन में विहरण और वह उसे प्राप्त नहीं हो रहा है। वैसे ही महल में सातों सुखों का उपभोग करती हुई कमलावती आत्मा के स्वाभाविक/मूल गुणों में रमण नहीं करने के कारण मुक्ति की अभीप्सा से व्यथित है। इस अशक्तता/ असमर्थता को प्रकट करने के लिए आगमकार ने पिंजरे में बंद पक्षिणी को उपमान बनाया है। अनासक्त चेतना
प्रसंग है मृगा रानी के अंगज दमीश्वर मृगापुत्र का। संयम प्राप्त करने की तीव्र अभीप्सा लिए विविध उपायों से माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर ममत्व का छेदन कर रहा है। एक-एक कर सांसारिक बंधनों को तोड़ रहा
इद्धिं वित्तं च मित्ते य पुत्तदारं च नायओ। रेणुयं व पडे लग्गं निझुणित्ताण निग्गओ॥ उत्तर. १९/८७
ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञातिजनों को कपड़े पर लगी हुई धूलि की भांति झटककर वह निकल गया, प्रव्रजित हो गया।
जैसे धूलि को वस्त्र से अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार मृगापुत्र सांसारिक संबंधों को अलग कर संयम में लग गया। इससे भेद विज्ञान तथा संयम मार्ग के साधक की अपुनरावर्तनीयता अभिव्यंजित हो रही है। मोर्चे पर हाथी
'संगामसीसे इव नागराया' उत्तर. २१/१७
संग्रामशीर्ष को उपमान बनाकर कवि कह रहा है जैसे मोर्चे पर नागराज व्यथित नहीं होता, वैसे परीषहों को प्राप्त कर भिक्षु व्यथित न बने।
युद्धक्षेत्र में नागराज शत्रुसेना को देख न चिंघाड़ता है, न वहां से पलायन करता है, न कष्ट का अनुभव करता है अपितु शत्रुओं से सामना कर विजयश्री का वरण करता है, वैसे ही मुनि परीषह उपस्थित होने पर कष्ट का अनुभव न करते हुए समभाव से सहन कर उनसे मुकाबला करें। यहां हाथी और मुनि की तुल्यता स्तुत्य है। नाग स्थिरता, प्रसाद, मर्यादा का प्रतीक है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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