Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। भिक्षु के लिए प्रिय-अप्रिय कुछ नहीं होता है। पुत्र, स्त्री आदि सभी बन्धनों से मुक्त 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं।' राजर्षि का यह चिन्तन एकत्व की उत्कृष्ट साधना का सूचक है, वैराग्यमय जीवन का द्योतक है।
इसी प्रकार का प्रसंग महाजनक जातक में भी मिलता है'मिथिलाय डयमानाय न मे किंची अड़यहथ'३ भावों की दृष्टि से दोनों में समानता है।
देवेन्द्र अनुकूल प्रासाद आदि का निर्माण करवाकर फिर निष्क्रमण की बात नमि से करता है
पासाए कारइत्ताणं वद्धमाणगिहाणि य। बालग्गपोइयाओ य तओ गच्छसि खत्तिया॥(उत्तर. ९/२४)
इन्द्र द्वारा वर्धमान गृह आदि के निर्माण की बात सुन हेतु और कारण से प्रेरित होकर नमि कहता है- संशय से आकुल मन ही मार्ग में घर बनाने का चिंतन करता है। प्रज्ञाशील तो वहां पहुंचना चाहता है जहां उसका शाश्वत घर है। मुझे अपने घर में जाने के साधन सम्यग्-दर्शन आदि प्राप्त हो चुके हैं फिर क्यों नहीं मैं अपना शाश्वत घर बनाऊं ?
संसयं खलु सो कुणई, जो मग्गे कुणई घरं। जत्थेव गंतुमिच्छेज्जा, तत्थ कुव्वेज्ज सासयं ॥ उत्तर. ९/२६
जब अन्य राजाओं को वश में करने की बात इन्द्र करता है तब नमि दूसरों से युद्ध करने की अपेक्षा, दूसरों को अपने वश में करने की अपेक्षा अपने आपको वश में करना, अपनी आत्मा से युद्ध करना ज्यादा पसंद करते हैं। नमि की दृष्टि है- बाहरी युद्ध से तुझे क्या? आत्मविजेता ही महान विजयी है
‘एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ। उत्तर. ९/३४
बड़े बड़े यज्ञ, श्रमण - ब्राह्मणों को भोजन, दान आदि करके अभिनिष्क्रान्ति की बात नमि के हृदय में संयम की बात को अधिक उद्वेलित करती है। सावध कार्य प्राणियों के लिए हितकर नहीं होता। संयम समता का राजमार्ग है। दस लाख गायों का दान देने वाले के लिए भी संयम ही श्रेयस्कर है। दान से संयम श्रेष्ठ है - इस भावना का स्पष्ट निर्देश नमि के संयमी जीवन से मिलता है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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