Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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३. संयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने के लिए स्वरभक्ति का प्रयोग किया जाता है। यथा
श्मशाने
स्मृत्वा
स्वपिति
स्त्री
धर्षयति
आर्य
अर्हा
असंयुक्त व्यंजन
210
प्रासुकम्
चिकित्सां
यक्ष
दहन्ति
असंयुक्त व्यंजन- परिवर्तन को भी तीन रूपों में देख सकते हैं
१. आदि- स्थित
>
है। यथा
सुसाणे
सरित्तु
सुवइ
इत्थी
धरिसेइ
आरिय
अरिहा
विषमम्
>
सलोकताम् >
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फासुयं
तेगिच्छं
उक्तः
यतिः
षड्विधम् >
ये
>
२. मध्य-स्थित
१. महाप्राण असंयुक्त व्यंजन (ख, घ, थ, ध, भ) प्रायः ह में बदलता है।
जक्ख
डहंति
वुत्ते
जई
छव्विहो
जे
(२/२०)
(९/२)
(१७/३)
(३०/२२)
(३२/१२)
(३२/१५)
(३६/२६२)
२. क, ग, च, ज, त, द, प, य, व का प्रायः लोप देखा जाता है। ३. प व में, ट> ड में, ठढ में, ड ल में प्रायः परिवर्तित होता
(१/३४)
(२/३३)
(५/२४)
(२३/५३)
(२३/५७)
(२४/१२)
(३० / १०)
(३२/२१)
विसमं
सलोगयं
(५/१४)
(५/२४)
उत्तराध्ययन का शैली - वैज्ञानिक अध्ययन
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