Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 241
________________ समिलं (२७/४) जुए की कील छिन्नाले (२७/७) जार सेल्लि (२७/७) रास को खलुंके (२७/३, ८, १५) अविनीत शिष्य गलि (२७/१६) अविनीत, दुष्ट बुज्झंति (२९/१) प्रशांत होते हैं बुज्झइ (२९/४२) प्रशांत होता है खुड्डए (३२/२०) अन्त करना ओराला (३६/१२६) स्थूल माइवाहया (३६/१२८) मातृवाहक (द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष) पल्लोया (३६/१२९) पल्लोय (द्वीन्द्रिय कीट-विशेष) अणुल्लया (३६/१२९) अणुल्लक (द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष) मालुगा (३६/१३७) मालुक (त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष) गुम्मी (३६/१३८) कानखजुरी डोले (३६/१४७) डोल (चतुरिन्द्रिय जीव-विशेश, टिड्डी) ३. वाक्य वाक्यविज्ञान के अंतर्गत भाषा में प्रयुक्त विभिन्न पदों के परस्पर सम्बन्ध का विचार किया जाता है। पद ईंट है और वाक्य भवन है। विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से होती है। अतः ‘वाक्य ही भाषा की सार्थक इकाई है।' आधुनिक भाषा-विज्ञान भी इस मत का पोषक है- Sentence is a significant unit. भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में कहा है पदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च। वाक्यात् पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कञ्चन॥ आचार्य विश्वनाथ ने आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति से युक्त पदसमूह को वाक्य माना है। कुमारिल भट्ट आदि आचार्यों ने भी वाक्य में आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति को अनिवार्य बताया है। १. आकांक्षा आकांक्षा का अर्थ अपेक्षा या जिज्ञासा की असमाप्ति है। वाक्य में 224 उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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