Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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देस विसेसपसिद्धीइ भण्णमाणा अणंतया हुंति। तम्हा अणाइपाइअपयट्टभासाविसेसओ देसी।।
जो शब्द व्याकरण ग्रंथों में प्रकृति, प्रत्यय द्वारा सिद्ध नहीं हैं, व्याकरण से सिद्ध होने पर भी संस्कृत कोशों में प्रसिद्ध नहीं हैं तथा जो शब्द लक्षणा आदि शब्द-शक्तियों द्वारा दुर्बोध हैं और अनादिकाल से लोकभाषा में प्रचलित हैं, वे सब देशी हैं। महाराष्ट्र, विदर्भ आदि नाना देशों में बोली जाने वाली भाषाएं अनेक होने से देशी शब्द भी अनंत है।
उत्तराध्ययन के कर्ता ने तीनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। तत्सम खलु
(१/१५)
(१/१६) संसारे
(३/२) देव
(९/१) दारुणा
(९/७) नीला
(३६/७२) तद्भव
पक्खपिण्डं (१/१९) हिच्चा
(३/२३) वड्इ
(३२/३०) सदावरी (३६/१३८)
वरं
देश्य
आगम-साहित्य शब्दों का भंडार है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी इसके शब्द तुलनीय एवं विमर्शनीय हैं। प्राकृत के अध्ययन के लिए भी देशी शब्दों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। उत्तराध्ययन में समागत अनेक देशी शब्द अर्वाचीन हिंदी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, कन्नड, तमिल,तेलगु भाषा के शब्दों से भी तुलनीय हैं। उत्तराध्ययन में प्रयुक्त देश्य शब्द हैं - खुड्डेहिं
(१/९) छोटा आहच्च
(१/११, ३/९) सहसा, कदाचित्
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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