Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 242
________________ प्रयुक्त शब्दों कर्ता, कर्म, क्रिया इन सभी को एक-दूसरे की अपेक्षा रहती है। इस अपेक्षा की पूर्ति होने पर ही वाक्य बनता है। इसलिए वाक्य में पदों का साकांक्ष होना अनिवार्य है। २. योग्यता पदों में पारस्परिक सम्बन्ध की योग्यता या क्षमता होनी चाहिए। अर्थ से सम्बन्धित या व्याकरण से सम्बन्धित कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। ३. आसत्ति आसत्ति अर्थात् समीपता। वाक्य में प्रयुक्त पद क्रमबद्ध रूप से उच्चरित हों, पदों के बीच अनावश्यक अन्तराल न हो-इनसे युक्त पदसमूह ही पूर्ण अर्थ की प्रतीति करा सकता है, इसलिए वही वाक्य है। वाक्य-प्रयोग एक जटिल प्रक्रिया है। इसका मनोवैज्ञानिक क्रम है१. चिन्तन-अभीष्ट अर्थ का विचार २. चयन-उपयुक्त शब्द-चयन ३. भाशितकगठन -व्याकरण के अनुरूप शब्द-क्रम ४. उच्चारण उच्चारण के द्वारा उन्हें वाक्य के रूप में प्रकट करना। वाक्य में ये चीजें यदि सुसंबद्ध रूप में चलती हैं तो वाक्य की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता। भाषा में अनेक प्रकार के वाक्य प्रयुक्त होते हैं। उत्तराध्ययन के कर्ता ने वाक्य के आवश्यक तत्त्वों सहित क्रमबद्ध वाक्यरचना का निर्माण कर वाक्य को सार्थक बनाया है। उत्तराध्ययन में प्राप्त वाक्यों के कुछ प्रकार द्रष्टव्य हैं१. रचनामूलक वाक्य वाक्यरचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं (i). सामान्य वाक्य : इसमें एक उद्देश्य होता है और एक विधेय। जैसे 'सुयं मे आउसं।' (उत्तर. २/सू. १) 'मा य चण्डालियं कासी' (१/१०) (ii) मिश्र वाक्य : इसमें एक मुख्य उपवाक्य होता है और उसके आश्रित एक या अनेक उपवाक्य होते हैं। उदाहरण रूप में कयरे ते खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया? (२/सू. २) उत्तराध्ययन की भाषिक संरचना 225 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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