Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 236
________________ केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, नापि केवलः प्रत्यय।' 'अपदं न प्रयुञ्जीत।' न केवल प्रकृति का प्रयोग करना चाहिए और न केवल प्रत्यय का। अपद (शब्द को पद बनाए बिना) का प्रयोग न करें। यास्क ने निरुक्त में पद को चार भागों में विभक्त किया है - १. नाम-संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण। २. आख्यात-क्रिया। ३. उपसर्ग-प्र, परा, अनु, उप आदि। ४. निपात-अव्यय शब्द (च, वा आदि)। नाम द्वि. वि. बिना पद के कोई भी शब्द प्रयुक्त नहीं होता। प्राकृत में सर्वत्र सार्थक शब्दों का ही प्रयोग देखा गया है। पद बनाने के लिए विभक्ति के प्रसंग में अर्धमागधी प्राकृत और दूसरी प्राकृतों की विभक्तियों में बहुत अन्तर नहीं है। अर्धमागधी में प्रथमा विभक्ति एकवचन में एकार भी मिलता है। इसका कारण अर्धमागधी पर मागधी का प्रभाव ही लगता है। आगमों में भी लगभग सभी कारक विभक्तियां प्रयुक्त हुई हैं। उत्तराध्ययन में प्रयुक्त सार्थक संज्ञा शब्दों के कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैंप्र. विभक्ति हरियाले (३६/७४), जयघोसे (२५/१) सामायारिं (२६/१), असमाहिं (२७/३) तृ. वि. कोहविजएणं (२९/६८), सामाइएणं (२९/९) ष. वि. दुक्खस्स (३२/१११), मोसस्स (३२/९६) स. वि. संसारे (३३/१), समुइंमि (२१/४) संबोधन गोयम! (२३/३४), मुणी! (२३/४१) सर्वनाम (२०/१) मज्झ (२०/९) सा (२२/४०) अहं (२२/३७) (२५/९) सो उत्तराध्ययन की भाषिक संरचना 219 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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