Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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साधक होता है। इसलिए प्राचीन वैयाकरणों ने ध्वनि-उच्चारण को महत्त्व देते हुए कहा है -
यद्यपि बहु नाधीष तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्। स्वजनः श्वजनो मा भूत् सकलं शकलं सकृत् शकृत्।।
व्याकरण और उच्चारण शिक्षा का बोध अवश्य होना चाहिए जिससे स्वजन (अपने सम्बन्धी) श्वजन (कुत्ते), सकल (सब) शकल (आधा) या सकृत् (एक बार) शकृत् (विष्ठा, मल) न हो जाए। ध्वनियों का प्राचीन वर्गीकरण स्वर और व्यंजन के रूप में प्राप्त होता है। स्वर वे ध्वनियां हैं जो स्वयं उच्चरित हो सकती हैं। व्यंजन का उच्चारण स्वरों की सहायता के बिना नहीं हो सकता। पतञ्जलि ने लिखा है-'स्वयं राजन्ते इति स्वराः। अन्वग् भवति व्यंजनम् इति।'
यनानी वैयाकरण डायोनिशस थ्रेक्स ने भी स्वरों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है और व्यंजनों को स्वरों के अधीनस्थ माना है। किन्तु आधुनिक दृष्टि से यह परिभाषा सर्वथा ग्राह्य नहीं है। यथा-'स्वर' शब्द के 'स्' में कोई स्वर नहीं है फिर भी उच्चारण में अस्पष्टता नहीं है। इससे स्पष्ट है कि उच्चारण के लिए स्वर की सहायता अनिवार्य नहीं है। आधुनिक दृष्टि से 'स्वर' वे ध्वनियां हैं जिनका उच्चारण करते समय निःश्वास में कहीं कोई अवरोध नहीं होता। 'व्यंजन' वे ध्वनियां हैं जिनका उच्चारण करते समय निःश्वास में कहीं न कहीं अवरोध होता है।
__ परिवर्तन सृष्टि का नियम है। प्रत्येक वस्तु संसरणशील है। प्रत्येक भाषा की ध्वनियों में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहा है। प्राकृत भाषा में भी ध्वनि-परिवर्तन की सभी स्थितियां वर्तमान हैं। इनके वैयाकरणों ने ध्वनि परिवर्तन का विवेचन स्पष्टता के साथ किया है। परिवर्तन का मुख्य कारण प्रयत्नलाघव या मुख-सुख है।
प्रस्तुत प्रसंग में ध्वनि-परिवर्तन का विवेचन उत्तराध्ययन के परिप्रेक्ष्य में वांछनीय है। प्राकृत में स्वर
प्राकृत स्वर-ध्वनियों में मुख्यतः आठ स्वर स्वीकृत हैंअ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए और ओ।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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