Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उपदेश विशेष प्रभावक होता है। इसी उपदेश से रथनेमि के चरित्र में उत्कृष्टता आती है, वे श्रामण्य में स्थिर होकर अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। यथा_ 'यदि तू रूप से वैश्रमण है, साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती। धिक्कार है तुझे। इस प्रकार रागभाव करने से तू अस्थितात्मा हो जाएगा।' राजीमती के ये वचन रथनेमि को तीर की तरह लगते हैं। वह जितेन्द्रिय होकर श्रामण्य में स्थिर हो जाता है।
उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दोण्णि वि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥ उत्तर. २२/४८
रथनेमि के चरित्र का यह दूसरा पक्ष एक नारी द्वारा पुरुष में पौरुषत्व जगाकर लक्ष्य प्राप्ति कराने का सुंदर निदर्शन उपस्थित करता है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन का प्रत्येक पात्र चरित्रगत विशिष्टता से पूर्ण है तथा अपनी लक्षित मंजिल को प्राप्त करके ही विराम लेता है।
सन्दर्भ : १. डॉ. नगेन्द्र द्वारा अनुदित अरस्तू का काव्यशास्त्र, पृ. २२ २. गोस्वामी तुलसीदास, पत्र ५९ उद्धृत हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का
आलोचनात्मक परिशीलन पृ. २२८ ३. महाजनक जातक, संख्या ५३९ ४. अभिज्ञान शाकुन्तल, २/९ ५. मेघदूत, २/२१ ६. अभिज्ञान शाकुन्तल, १/१९
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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