Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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रथनेमि
भगवान अरिष्टनेमि के अनुज रथनेमि थे । उनका चरित्र संक्षिप्त होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। 'रहनेमिज्जं' अध्ययन में रथनेमि को उद्बोधित करना आगमकार का मुख्य लक्ष्य है ही, साथ साथ कामवासना के जाल में फंसने वाले प्राणियों के भी उद्धार की कहानी है ।
७.
मनुष्य नैतिक और अनैतिक कार्यों से उठता है, गिरता है । चरित्र में अर्न्तद्वन्द्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है । रथनेमि एक ऐसा पात्र है जिसका जीवन द्वन्द्व से भरा है। जो पहले अरिष्टनेमि द्वारा वमित राजीमती से विवाह की इच्छा करता है किन्तु राजीमती के दीक्षित होने पर स्वयं भी दीक्षा ले लेता है । फिर पुनः राजीमती के रूप में आसक्त हो कामी जीवन की इच्छा करता है। राजीमती उसे संयम मार्ग में स्थिर करती है।
इस अध्ययन से द्वन्द्व से विकसित रथनेमि के चरित्र के दो पक्ष सामने आते हैं
१. काम से पीड़ित होकर पतन के द्वार तक पहुंच जाना । २. राजीमती से उद्बोध पाकर संयम में स्थिरीकरण द्वारा अनुत्तरगति को प्राप्त करना ।
कामी पुरुष
गुफा में राजीमतीको यथाजात अवस्था में देखकर रथनेमि भग्नचित हो जाता है । वह कामान्ध ज्येष्ठ भ्राता द्वारा परित्यक्त राजीमती से निर्लज्ज होकर भोग की याचना करता है। दमित काम-वासना उभर आती है। तर्क-युक्त वाणी में कहता है - भद्रे ! मैं रथनेमि हूं । तू मुझे स्वीकार कर । तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। हम भुक्त भोगी हो फिर जिन मार्ग पर चलेंगे।
इस प्रकार एक कामी पुरुष के रूप में रथनेमि पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है।
जितेन्द्रिय
रथनेमि के चरित्र का दूसरा पक्ष है - राजीमती से उद्बोध पाकर संयम स्थिरता और अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति ।
प्रभुसम्मित, मित्रसम्मित आदि उपदेशों की अपेक्षा कान्तासम्मित
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
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