Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 209
________________ २. मुनि हरिकेशी जाति की उच्चता के अहंकार के कारण चाण्डाल कुल में उत्पन्न हरिकेशी ने जातिस्मरण ज्ञान द्वारा जाति-मद का कुत्सित फल तथा स्वर्गीय सुखों की नश्वरता को भी देखा। 'संसार त्याज्य है' यह प्रतीति उसके भीतर वैराग्य भावना को उत्पन्न करती है। प्रव्रजित होकर हरिकेशी मुनि के रूप में जगविश्रुत हुआ। मुनि हरिकेशी की चारित्रिक विशेषताएं उसके संयमी व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालती हैंआचारनिष्ठ ___ साधु का सर्वस्व आचार-पालन है। मुनि हरिकेशी श्रमण-धर्म के आचार का सम्यक् रूप से पालन करते थे। ईर्या, एषणा आदि समितियों में सतत सावधान थे। मन, वचन और काया से गुप्स तथा जितेन्द्रिय थे। उनके उपकरण और उपधि भी उनके श्रेष्ठ संयमी जीवन के परिचायक थे। तपस्वी तप में अचिन्त्य शक्ति व सामर्थ्य है। वह दूसरों को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। हरिकेशी का तप अद्वितीय था। वे एक दिवसीय यावत् बढ़ते बढ़ते अर्द्धमासिक एवं मासिक उपवास क्रम द्वारा तप के अनुष्ठान में निरत रहते थे। 'तवेण परिसोसियं' (उत्तर, १२/४) तप से उनका शरीर भी कृश हो गया था। मासिक तपस्या के पारणे में भी स्वयं ही आहार की गवेषणा करते थे। उनके तप आदि गुणों से प्रभावित होकर मंडिक यक्ष अनवरत उनकी सेवा में संलग्न था। ‘एसो हु सो उग्गतवो महप्पा' (उत्तर, १२/२२) भद्रा का यह कथन भी हरिकेशी के उग्र तपस्वी का ही सूचक है। ब्रह्मचारी राजा कौशलिक अपनी पुत्री भद्रा के पाणिग्रहण के लिए मुनि से प्रार्थना करता है। मुनि राजकन्या को अस्वीकार करते हुए कहते हैं – मैं सांसारिक भोग-वासनामय जीवन से सर्वथा निवृत्त हूं, संयमशील साधक हूं। मैं मन, वचन, शरीर से स्त्री का स्पर्श तक नहीं कर सकता। तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ, वह तो यक्ष की करतूत है। सहज प्राप्त राजकन्या का परिहार मुनि के ब्रह्मचर्य व्रत के स्वीकरण का द्योतक है। 192 उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन ____Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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