Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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कुश की नोक पर लटकते हुए ओस-बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है वैसे ही मनुष्य जीवन की गति है। इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
यहां ओस-बिन्दु और जीवन में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। जानामि धर्म ...
"जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः।"
मोहकर्म व्यक्ति में मूढ़ता उत्पन्न करता है। उससे चेतना पर आवरण आ जाने से सच्चाई जानते हुए भी व्यक्ति उसका आचरण नहीं कर सकता। जानते हुए भी मनुष्य धर्म का आचरण क्यों नहीं कर पाते? दृष्टान्त के माध्यम से कवि कहता है-जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम-गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते।
नागो जहा पंकजलावसन्नो, दळु थलं नाभिसमेइ तीरं। एव वयं कामगुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥
उत्तर. १३/३० हाथी के दृष्टान्त से यहां करणीय कार्यों की प्रवृत्ति में मनुष्य की असमर्थता लक्षित हो रही है। दलदल में फंसा हाथी असमर्थ, असहाय होता है, सीधे मार्ग पर जा नहीं सकता, वैसे ही कामासक्त सन्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता। आसक्ति से उपरत
सांसारिक सुख-भोगों को छोड़ संयम पथ पर अग्रसर होते हुए पुत्रों को देख पुरोहित अपनी पत्नी से कहता है—जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़ मुक्त भाव से चलता है, वैसे ही पुत्र भोगों को छोड़ जा रहे हैं -
जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो, निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। एमेए जाया पयहति भोए, ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्को॥
उत्तर. १४/३४ सर्प के दृष्टान्त से यहां भृगुपुत्रों की भोगों के प्रति अनासक्त भावना तथा निरपेक्षता परिलक्षित हो रही है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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