Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५. उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
अपने विचारों एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए रचनाकार चरित्रचित्रण का अवलंबन लेता है। मनुष्य की बाह्य आकृति व साज-सज्जा से पता चलता है कि व्यक्ति गरीब या अमीर है, किन्तु उसके मनोभावों की जानकारी उसके चरित्र से होती है। चरित्र के सम्बन्ध में अरस्तू का अभिमत है कि 'चारित्र्य' उसे कहते हैं, जो किसी व्यक्ति की रुचि-विरुचि का प्रदर्शन करता हुआ नैतिक प्रयोजन को व्यक्त करे। इससे स्पष्ट है कि चरित्र ही पात्रों की भद्रता-अभद्रता का द्योतन करता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि 'शील हृदय की वह स्थायी स्थिति है , जो सदाचार की प्रेरणा आपसे आप करती है।
चरित्र चित्रण के द्वारा मानवीय विचार, भावना, उद्देश्य, प्रयोजन आदि का सूक्ष्म आकलन संभव होता है। चरित्र संस्थापन के लिए तीन बातों पर ध्यान आवश्यक है -
१. पात्र की स्वयं की उक्ति क्या है ? २. अन्य पात्र उसके बारे में क्या कहते हैं ? ३. लेखक का पात्र के विषय में क्या मंतव्य है ?
उत्तराध्ययनकार के चरित्र-चित्रण में चरित्र-स्थापत्य का उत्कर्ष नजर आता है। आदर्श और यथार्थवादी चरित्र उभरकर सामने आए हैं। यथार्थता व कला के संयोग से पात्र महत्त्वपूर्ण बन गए हैं। चरित्र -उपस्थापन का वैशिष्ट्य
१. कथ्य की विशद अभिव्यक्ति के लिए २. बिम्बात्मकता ३. सशक्त सम्प्रेषणीयता
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
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