Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 198
________________ यहां 'कालेण' तथा 'कालं' की एक बार सान्तर आवृत्ति हुई है । सुकडे ति सुपक्के त्ति सुछिन्ने सुहडे मडे । सुट्ठिए सुलट्ठेत्ति सावज्जं वज्जए मुणी ॥ उत्तर. १/३६ इस गाथा में सु, ए, त्ति व्यंजनों का अनेक बार अन्तर सहित प्रयोग है । हुआ अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥ उत्तर. ३/६ यहां ण, स आदि वर्णों की अनेक बार सान्तर आवृत्ति हुई है । सन्ति मे यदुवे ठाणा अक्खाया मारणन्तिया । अकाममरणं चेव सकाममरणं तहा ॥ उत्तर. ५/२ म, र, ण आदि वर्णों की बार-बार संयोजना हुई है । ताणि ठाणाणि गच्छन्ति ॥ उत्तर. ५ / २८ ण की यहां व्यवधान युक्त संयोजना हुई है। एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी । अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे । उत्तर. ६ / २७ यहां अणुत्तर शब्द की अनेकशः सान्तर आवृत्ति हुई है । तिण्णो हु सि अण्णवं महं कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ । अभितुरपारं गमित्त समयं गोयम ! मा पमायए । उत्तर. १०/३४ यहां ण्ण, र, म, य, ए आदि वर्णों का प्रबंधन व्यवधानपूर्वक हुआ है। नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई ॥ उत्तर. ११/५ स, ल की व्यवधानपूर्ण पुनरावृत्ति द्रष्टष्य है। ज्झमाणं न बुज्झामो । उत्तर. १४/४३ यहां ज्झ की एक बार सान्तर आवृत्ति हुई है । छेकानुप्रास संयुक्त या असंयुक्त व्यंजन समूह की एक बार सान्तर या निरन्तर आवृत्ति को छेकानुप्रास कहते हैं। उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only 181 www.jainelibrary.org

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