Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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२. अर्द्धसमवृत्त - जिसमें प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण समान हों।
३. विषमवृत्त - जिसमें चारों चरण असमान हों।
उत्तराध्ययन में अनुष्टुप्, उपजाति, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा तथा वंशस्थ वर्णिक छंद व्यवहृत हुए हैं।
अनुष्टुप्
अनु उपसर्ग पूर्वक स्तुभ् धातु से अनुष्टुप् शब्द निष्पन्न है । निरुक्त में इसका निर्वचन इस प्रकार है- 'अनुष्टुबनुष्टोभनात् " " अर्थात् अनुस्तवन करने से यह अनुष्टुप् कहलाता है। वैदिक साहित्य का यह अति प्रिय छंद है। अनुष्टुप् में अक्षरों की संख्या बत्तीस होती है। लोक में इसे ' श्लोक' भी कहा जाता है। इसके चार चरण तथा प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं, मात्राएं अलग-अलग होती हैं।
श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । द्विचतुष्पादयोहस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ||
श्लोक के प्रत्येक चरण में छठा वर्ण गुरु तथा पांचवा लघु होता है। द्वितीय और चतुर्थ चरण में सातवां लघु होता है। प्रथम और तृतीय चरण में सातवां गुरु होता है।
छन्दोमंजरी में इसे वक्त्र छन्द कहा गया है।
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उत्तराध्ययन में अनुष्टुप् का बहुत प्रयोग हुआ है। गाथा छंद के साथ भी अनुष्टुप् का प्रयोग मिलता है। (कुछ चरण गाथा के, कुछ अनुष्टुप् के) इस प्रकार अनुष्टुप् छन्द का दो रूपों में विवेचन किया जाता है
१ . शुद्ध अनुष्टुप् - जिसके चारों चरणों में अनुष्टुप् का लक्षण घटित
हो।
२.
अशुद्ध अनुष्टुप् - जिसमें कुछ चरण अनुष्टुप् के तथा कुछ अन्य छन्दों में।
शुद्ध अनुष्टुप्
'चाउरंगिज्जं' में प्राणियों के लिए दुर्लभ किन्तु उपादेय चार तत्त्वों का निरूपण अनुष्टुप् छंद में इस प्रकार है
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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