Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जीवन : एक तरंग
जीवन की क्षणिकता तथा नश्वरता का चित्रण उपमा के माध्यम से मर्मस्पर्शी बना है
दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम! मा पमायए॥ उत्तर. १०/१
जिस प्रकार रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
अनयोगद्वार में इस कल्पना को अधिक सरसता के साथ प्रस्तुत किया है। पके हुए पत्तों को गिरते देख कोपलें हंसी तब पत्तों ने कहा—जरा ठहरो, एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी, जो आज हम पर बीत रही है।६१
कबीर ने इसी उपमान को भाषा देते हुए कहामाली आवत देखकर कलियां करे पुकार। फूलहि फूलहि चुन्हि लियै कालि हमारी बार॥
उत्तराध्ययन का 'दुमपत्तए पंडुयए' उपमान जीवन की क्षणभंगुरता तथा समवर्ती-कृतान्त के सब पर समान वर्तन का द्योतक है। बहुश्रुतता की ऋद्धि
बहुश्रुत के ऐश्वर्य को प्रतिपादित करने के लिए चक्रवर्ती के उपमान द्वारा कवि की लेखनी विवश होकर कहती है—ऋद्धि-संपन्न चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का अधिपति होता है, वैसे ही बहुश्रुत चतुर्दश पूर्वधर होता है
जहा से चाउरन्ते चक्कवट्टी महिड्ढिए। चउदसरयणाहिवई एवं हवई बहुस्सुए॥ उत्तर. ११/२२
चक्रवर्ती षट्खंड का अधिपति होता है। वह चतुरंगिणी सेना–हस्ति, अश्व, रथ और पदाति के द्वारा शत्रु का अंत करने वाला तथा सेनापति, गाथापति आदि चौदह रत्नों का स्वामी होता है। उसी प्रकार बहुश्रुत का विद्या रूपी राज्य चारों दिशाओं में व्याप्त रहता है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ इस भावना चतुष्टयी से परीषह रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है तथा चतुर्दश पूर्वो का स्वामी होता है। यहां चक्रवर्ती के उपमान से बहुश्रुत की बहुश्रुतता
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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