Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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स्वाभाविक तथा भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए हुआ है। मनुष्य की मौलिक मनोवृत्तियां, प्राकृतिक छटा, सांसारिक दृश्य आदि के प्रसंगों में उपमा
और दृष्टान्त अलंकार पदे-पदे देखे जा सकते हैं। किस परिस्थिति में कवि किस मानसिक भाव की अभिव्यक्ति करता है- इस तथ्य का उद्घाटन भी सहज हुआ है। अलंकारों में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। ये भावों को सरलता से हृदय तक पहुंचाने के लिए संवाहक हैं।
यहां उत्तराध्ययन में प्रयुक्त कुछ अलंकारों का विवेचन किया जा रहा
* उपमा अलंकार
उपमा अलंकार अत्यन्त प्राचीन व सौन्दर्य की दृष्टि से अग्रगण्य है। यह सादृश्यमूलक अलंकार है। उपमा में दो पदार्थों को समीप रखकर एकदूसरे के साथ साधर्म्य स्थापित किया जाता है। मम्मट की परिभाषा के अनुसार उपमेय और उपमान में भेद होने पर भी उनके साधर्म्य को उपमा कहते हैं।५९
__ प्राचीनता, व्यापकता, रमणीयता, सौन्दर्य-प्रियता आदि की दृष्टि से उपमा का अधिक महत्त्व है। अप्पय दीक्षित ने उपमा को नृत्य की भूमिका में विविध रूपों को धारण कर सहृदयों का रंजन करने वाली नटी के समान माना है -
उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिका भेदान्। रंजयति काव्यरंगे नृत्यंती तद्विदां चेतः॥६०
उपमा अलंकार सभी अलंकारों में प्रधानभूत है। प्राचीन काल से ही भारतीय परम्परा के कवियों, ऋषियों एवं आचार्यों ने उपमा का प्रभूत प्रयोग किया है। संसार का आद्यग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक ललित एवं उत्कृष्ट उपमाएं मिलती हैं। ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, कालिदास का साहित्य उपमाओं से भरा है। उपमा प्रयोग में कालिदास का महत्त्व सर्व स्वीकृत है।
जैन परम्परा में सबसे प्राचीन ग्रन्थ आगम माने जाते हैं; जो आप्तवचन हैं। इनमें उपमाओं का प्रचुर प्रयोग मिलता है। आगम साहित्य का प्रथम एवं आद्य ग्रंथ आचारांग सूत्र में अनेक सुन्दर उपमाओं का प्रयोग किया गया है। नागो संगामसीसे वा (९/८/१३), सूरो संगामसीसे वा (९/३/१३) आदि
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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