Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उसकी शैली होती है। वे कौन सी प्रविधियां हैं, जिनके आश्रयण से कवि की वाणी सशक्त व प्रभविष्णु बन जाती है? मूल तत्त्व है-अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति का एक ऐसा आयाम जो 'सामान्य कथ्य' को 'विशेष' सम्प्रेषणीय बना देता है, वह माध्यम भाषा है। भाषा की विशिष्टता के लिए विचलन, अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप, उपमा, रूपकादि अलंकार, वक्रोक्ति, प्रतीक, सशक्त एवं साभिप्राय पदावलि का प्रयोग काम्य है।
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान के इन सभी तत्त्वों का रचनाकार ने भरपूर प्रयोग किया है, जिसके कारण वह 'श्रमणकाव्य' के अभिधान से अभिहित होता है। उत्तराध्ययन में एक ओर कंवि- हृदय से संभूत श्रुतिसुखद पदों का प्रयोग परिलक्षित होता है तो दूसरी ओर उपचार - वक्रता आदि का उत्कृष्ट निदर्शन भी दिखाई देता है।
उत्तराध्ययन सूत्र का प्रारंभ ही इससे होता है- 'विणयं पाउकरिस्सामि' (१/१) प्रकट करना मूर्त का धर्म है, विनय अमूर्त है - कैसे प्रकट करें? यहां अमूर्त विनय को मूर्त रूप में चित्रित किया है। 'पाउकरिस्सामि' में क्रियावक्रता है। यहां एक ही उदाहरण दिया जा रहा है। विस्तृत विवेचन संबंधित अध्याय में किया जा सकेगा। उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, वक्रोक्ति आदि तत्त्व शैलीविज्ञान के सहचर बनकर काव्यभाषा के विश्लेषणात्मक अनुसंधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
शैलीविज्ञान पद में निहित रचनाकार की मानसिकता को तलाशता है। अतः पद प्रयोग के वैशिष्ट्य को बताने के लिए ही शैलीविज्ञान की आवश्यकता है।
वैशिष्ट्य
उत्तराध्ययन की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित अर्धमागधी प्राकृत है। 'भगवं च णं अद्धमागहीए भासा धम्ममाइक्खर' (समवाओ, समवाय ३४) - भगवान महावीर अर्द्धमागधी भाषा में बोलते थे। भाषाशास्त्रियों की दृष्टि में उत्तराध्ययन की भाषा अत्यन्त प्राचीन है। आगम- साहित्य आचारांग और सूत्रकृतांग की भाषा के बाद तीसरे स्थान पर उत्तराध्ययन का नाम आता है।'
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उत्तराध्ययन भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । कवि के
उत्तराध्ययन का शैली- वैज्ञानिक अध्ययन
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