Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो उसकी भाति, अनन्त मोहवाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता।
धन से कभी मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता है, इस शाश्वत सत्य की अभिव्यंजना से प्रबन्ध-वक्रता में निखार आया है। यहां अज्ञानता को अंधेरी गुफा से उपमित कर तथ्य की अभिव्यंजना की गई है।
परिग्रह मोह का आयतन है। जब तक व्यक्ति परिग्रह में आकंठ डूबा रहता है तब तक सत्संगति भी उसे सन्मार्ग की ओर नहीं ले जा सकती। मोहयुक्त चित्त सदा संदेहग्रस्त रहता है तथा संदेहग्रस्त व्यक्ति के दिन में भी जितना अंधकार होता है उतना रात्रि का अंधकार भी नहीं होता -
जो अत्तवीसासपगासपत्तो तेणंधयारो सयलो वि तिण्णो। राओ वि णो तारिसमंधयारं संदेहयत्तस्स जहा दिणे वि।।
मोह के कारण अंधकार है। मोह दूर होगा तभी आत्मविश्वास प्राप्त होगा।
इस प्रकार वक्रोक्ति-सिद्धांत के व्यापक रूप में अलंकार, ध्वनि, रस आदि पूर्व-प्रचलित सिद्धांतों का समन्वय किसी न किसी रूप में हो , जाता है। कुन्तक की ‘वर्ण-विन्यास-वक्रता' में रीति के गुणों का, ‘पदपूर्वार्ध-वक्रता' और 'पद-परार्ध-वक्रता में शब्दालंकारों का, 'वाक्य-वक्रता' में अर्थालंकारों का, ‘प्रकरण-वक्रता' में ध्वनि का और ‘प्रबन्ध-वक्रता' में रस का प्रतिनिधित्व माना जा सकता है। साथ ही इसके सूक्ष्म भेदों के अंतर्गत काव्य की शैली के अनेक तत्त्वों का विवचेन प्राप्त होता है। मौलिकता और व्यापकता की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।
कवि कला से संसार को जीत लेता है। उत्तराध्ययन काव्य में साभिप्राय वक्रता के विभिन्न प्रयोग उसकी काव्यभाषागत संरचना को अभिनव आयाम प्रदान करते हैं। अर्थ-समृद्धि के सम्पोषक के साथ काव्यप्रतिभा को भी नया गठन, नया सौन्दर्य प्रदान कर उसे अभिनव रूपों में उभारते हैं। प्राचीन आचार्यों के शब्दों में पुनः कहा जा सकता है-सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिः ... कोऽलङकरोऽनया विना- यह सर्वत्र वक्रोक्ति ही है......कौन सा सौन्दर्य है जो इसके बिना हो।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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