Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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के उत्तर में आंतरिक शत्रुओं पर विजय स्वरूप वीर-रस प्रस्फुटित हुआ है। गौतम ने कहा -
एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी। || उत्तर. २३/३८ ।
एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है। कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुने ! मैं उन्हें यथाज्ञात उपाय से जीतकर विहार कर रहा हूं।
गौतम के मन में आंतरिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति का उत्साह सतत प्रवर्धमान है। यह उत्साह ही स्थायीभाव है। 'कषायमुक्ति किलमुक्तिरेव' कषायमुक्ति बिना मुक्ति संभव नहीं। मुक्ति की तीव्र अभीप्सा आलम्बन विभाव है। आत्मा, मन, इन्द्रियां, कषाय चतुष्क-इन पर नियंत्रण उद्दीपन विभाव हैं। शत्रुओं पर विजय अनुभाव है। शौर्य, हर्ष आदि संचारी भावों से आत्मिक विजय सम्बन्धी तपवीर-रस की निष्पत्ति हुई है। युद्धवीर
युद्धवीर विकट युद्ध में शत्रु-पक्ष पर विजय प्राप्त करने का प्रबल संकल्प व उत्कृष्ट उत्साह से युक्त होता है।
उत्तराध्ययन में बाह्य शत्रुओं पर चढ़ाई का प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ है। किन्तु युद्ध आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है। यथा-संगामे (९/ ३४), जुज्झाहि (९/३५), सव्वसत्तू (२३/३६) आदि। भयानक-रस
भयानक रस का स्थायीभाव भय है| भयानक दृश्य को देखने तथा बलवान् व्यक्तियों के द्वारा अपराध करने से भयानक-रस की उत्पत्ति होती
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भय स्थायीभाव जब विभाव आदि से पुष्ट होकर अनुभूति का विषय बनता है तो भयानक-रस होता है।
उत्तराध्ययन में मृगापुत्र के द्वारा पहले किए हुए पापकर्मों के भोग का वर्णन भयोत्पादक होने से भयानक-रस की सृष्टि कर रहा है -
अइतिक्खकंटगाइण्णे तुंगे सिंबलिपायवे। खेवियं पासबद्रेणं कड्ढोकड्ढाहिं दुक्करं।।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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