Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 167
________________ 'चन्दयति आह्लादयति इति छन्दः , ३७ जो पाठकों को प्रसन्न करता है, आनन्द देता है वही छन्द है । यह मात्रिक एवं वर्णिक के भेद से दो प्रकार का हैं । ३८ छन्दशास्त्र में प्रायः मात्रिक छन्दों के लिए छन्द या जाति तथा वर्णिक छन्दों के लिए वृत्त का प्रयोग है। अक्षरों की गणना को वर्णिक एवं मात्राओं की गणना को मात्रिक छन्द कहते हैं। वर्णिक गण आठ हैं-म, न, भ, य, ज, र, स और तगण आठों गणों का लघु-गुरु विधान इस प्रकार है जिसमें तीन गुरु हो वह मगण ( SSS), तीन लघु हो वह नगण (III), आदि गुरू और शेष दो लघु हो वह भगण (SII), आदि लघु तथा दो गुरू हो वह यगण (ISS), मध्य में गुरू और आदि - अंत में लघु हो वह जगण (ISI), मध्य में लघु तथा आदि - अंत में गुरू हो वह रगण, (SIS), अंत गुरू और आदि-मध्य लघु हो वह सगण (IIS) तथा जिसके अंत में लघु और आदिमध्य में गुरू हो वह तगण (SSI) होता है। २. ३. ४. मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः । जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः॥ ३९ क्रम गणसंज्ञा १. ५. ६. ७. ८. ४० 'प्राकृतपैंगलम्' में भी ऐसा ही निर्देश है। 150 .४१ 'प्राकृतपैंगलम्' में गणों के देवता, फल आदि का उल्लेख है ? - गण स्वरूप देवता फलाफल SSS पृथ्वी ऋद्धि III जल बुद्धि SII मंगल ISS ISI SIS IIS SSI मगण नगण भगण यगण जगण रगण सगण तगण सुख-सम्पदा उद्वेग मरण प्रवास शून्य गण, नगण मित्र हैं। यगण, भगण सेवक हैं। जगण, तगण दोनों उदासीन है। सगण, रगण हमेशा शत्रु हैं । ४२ काल Jain Education International 2010_03 अग्नि गगन सूर्य चंद्रमा नाग उत्तराध्ययन का शैली - वैज्ञानिक अध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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