Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ' जो जन्मता है, वह अवश्य ही मरता है तथा 'मरणसमं नत्थि भयं' - मरण के समान दूसरा कोई भय नहीं है। धर्म इस भय से त्राण दे सकता है-इन शाश्वत सत्यों का उद्घाटन कर एक स्त्री ने भारतीय मनीषा की गरिमा को और अधिक बढ़ाया है।
उत्तराध्ययन में 'निसन्ते' ( १/८ ) शब्द का प्रयोग भी शान्त रस के लिए हुआ है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन में प्रायः सभी रसों का विनियोजन आगमकार ने किया है। भावों की आधारशिला पर ही रस का भव्य राजप्रासाद अधिष्ठित है। शान्त रस, वीर रस की प्रमुखता है। अन्य रस गौणरूप में प्रयुक्त हैं। कुछ प्रसंगों में रसाभास के उदाहरण भी प्राप्स हैं।
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छंद
लय, स्वर तथा मात्राओं के उचित सन्निवेश से युक्त शाब्दिक अभिव्यक्ति छंद है। जैसे शब्दनियमन व्याकरणशास्त्र से, वाक्यनियमन साहित्यशास्त्र से किया जाता है, वैसे ही अक्षरनियमन छंदशास्त्र से किया जाता है।
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद छन्दोबद्ध है, इसलिए छंदशास्त्र का उदय भारतवर्ष में मानना चाहिए। नारायण शास्त्री खिस्ते के मतानुसार छन्दशास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों में प्राचीन ग्रंथ पिङ्गल का छंदसूत्र है, जिसमें वैदिक और लौकिक छंदों का निरूपण कर मात्रा, गण, यति, गुरु, लघु आदि विषयों का अच्छा विवेचन प्राप्त है।
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जीवन-चेतना जब विश्वचेतना बनकर सर्वांगीण स्वरूप को प्राप्त करती है तब छंदोमयी वाणी निःसृत होती है। इस वाणी से साहित्य मनोरंजक, आह्लादक बनता है। अलंकार बाह्य आकर्षण का वाचक है। पर छंद आन्तरिक प्रसन्नता उत्पन्न करता है। छंदबद्ध उपदेश अधिक प्रभावक होने से छंद उपदेश - परम्परा का उपकारक है।
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भारतीय साहित्य में छंद शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। ऋग्वेद में प्रलोभन, प्रसन्नता, आमंत्रण अर्थों में ३३, प्रार्थना के वाचक रूप में निघण्टु में रे२, पाणिनि में वेद तथा षडङ्गों में एक अंग - छंदः पादौ तु वेदस्य ३४ इच्छा एवं कल्पना के अर्थ में चाणक्यनीतिदर्पण में पद्य के अर्थ में अमरकोष आदि में छंद शब्द का नियोजन
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वृत्त एवं हुआ 'है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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