Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा।।
उत्तर. ८/१ अर्थात् अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में ऐसा कौन सा कर्म-अनुष्ठान है, जिससे में दुर्गति में न जाऊं ?
यहां तत्त्वज्ञान से उत्पन्न निर्वेद स्थायीभाव है। संसार की अनित्यता, दुःख बहुलता आलम्बन विभाव हैं। कपिलमुनि का उपदेश उद्दीपन विभाव है। अध्यात्म-ज्ञान, कर्मों की भयंकरता का दर्शन आदि अनुभाव हैं। इनसे निष्पन्न शम रूप स्थायीभाव शान्त-रस की सृष्टि कर रहा है।
समणो अहं संजओ बंभयारी विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥
उत्तर. १२/९ मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं, धन, पचन-पाचन और परिग्रह से विरत हूं। यह भिक्षा का काल है। मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए यहां आया हूं।
हरिकेशी की तपःसाधना का यह मर्मस्पर्शी चित्रण, परिकर-अलंकार का योग पाकर शान्त-रस की सुषमा को बढ़ा रहा है।
चित्त में स्थित निर्वेद स्थायीभाव है। तत्त्वज्ञान आलम्बन विभाव है। तप-निष्ठा, श्रमनिष्ठा, अपरिग्रहवृत्ति आदि अनुभाव हैं। धृति, शौच आदि संचारिकों की सहायता से शान्त-रस आकार ले रहा है।
'हरिकेशी मुनि स्वयं शांत-रस की प्रतिमूर्ति ही प्रतीत होते हैं। आगमों में कहा गया कि मुनि पीटे जाने पर भी क्रोध न करे, मन में भी द्वेष न लाये। चाण्डालपुत्र मुनि हरिकेशी कुमारों द्वारा डंडों एवं चाबुकों से पीटे गये। सेवा में लगे हुए यक्ष ने कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। यह देखकर सोमदेव ने मुनि को कहा- ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं। मुनि कोप नहीं किया करते। मुनि ने जो उत्तर दिया, लगता है संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए उनका अंतःकरण हर क्षण शान्तरस से सरोबार था
पुट्विं च इण्डिं च अणागयं चा, मणप्पदोसो न मे अत्थि को। जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए निहया कुमारा।।
उत्तर. १२/३२
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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