Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
का वर्णन होता है। इसमें प्रबन्ध के समस्त सौन्दर्य का समावेश हो जाता है। कुंतक ने इसके छः प्रकारों का निर्देश किया हैं, जो पूर्व में निर्दिष्ट है। उत्तराध्ययन में प्रबन्ध-वक्रता
चौदहवें 'उसुयारिज' अध्ययन में भृगु-पुरोहित के दोनों पुत्र संयमभावना से ओत-प्रोत हो माता-पिता से संयम की आज्ञा प्रदान करने की अनुमति चाहते हैं तब वे पुत्रों को समझाते हैं अभी संयम ग्रहण मत करो। उस समय कुमारों ने जो उत्तर दिया वह प्रबन्ध-वक्रता का सुंदर उदाहरण है
जहा वयं धम्ममजाणमाणा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता, तं नेव भुज्जो वि समायरामो।।
उत्तर. १४/२० हम धर्म को नहीं जानते थे तब घर में रहे, हमारा पालन होता रहा और मोह वश हमने पाप कर्म का आचरण किया। किन्तु अब फिर पाप-कर्म का आचरण नहीं करेगें।
इस अध्ययन में पुरोहित तथा उसकी पत्नी यशा दोनों ब्राह्मणसंस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए दोनों कुमारों को संयम से रोकने का प्रयास कर रहे हैं। भृगुपुत्र संयम.फल की प्राप्ति के लिए कटिबद्ध हैं। श्रमणसंस्कृति को उजागर करते हुए वे अपने तर्कों से माता-पिता को भी संसार की असारता और क्षणभंगुरता का दर्शन कराते हैं। ऐसा विश्वास पैदा होने पर वे भी संयम-पथ के पथिक बन जाते हैं।
अह सा रायवरकन्ना सुसीला चारुपेहिणी। सव्वलक्खणसंपुन्ना विज्जुसोयामणिप्पभा।। उत्तर. २२/७
वह राजकन्या सुशील, चारु-प्रेक्षिणी (मनोहर-चितवन वाली), स्त्री.जनोचित सर्व.लक्षणों से परिपूर्ण और चमकती हुई बिजली जैसी प्रभा वाली थी।
इस श्लोक में राजीमती के रूप-लावण्य का मनोहारी वर्णन किया गया है और पूरे प्रबन्ध में वह अपने शील, चारित्र एवं गुणों की उदात्तता के कारण दीप्तिमान बनी रहती है।
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमंमि लोए अदुवा परत्था।
दीवप्पणढे व अणंतमोहे नेयाउयं दद्रुमदछमेव।। उत्तर. ४/५ उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
123
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org