Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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लोगों के लिए आश्चर्य का ही विषय है। यहां 'अहो! ते निजिओ कोहो' आदि पदों द्वारा वाक्य-विन्यास का सुन्दर निदर्शन उपस्थित किया गया है। प्रकरण-वक्रता
जब किसी प्रबंध के एक देश या कथा के एक अंश (प्रकरण) के कारण सौन्दर्य का आधान हो तो प्रकरण-वक्रता होती है। प्रबंध के किसी प्रकरण-विशेष में वैचित्र्य होने पर यह भेद होता है। 'संपूर्ण प्रबंध को दीप्त करने वाला प्रबंध के एक देश का चमत्कार प्रकरण-वक्रता के नाम से अभिहित होता है।'७२ इसकी भी कई स्थितियां होती हैं -
१. भावपूर्ण और रोमांचकारी स्थितियों की उद्भावना २. विशिष्ट-प्रकरण की अतिरंजना ३. मूलकथा के साथ किसी अल्पावधि कथा की रोमांचक प्रस्तुति ४. नगर, उद्यान आदि का भव्य वर्णन ५. जलक्रीड़ा, द्यूतक्रीड़ा आदि प्रसंगों की उद्भावना
६. प्रधान उद्देश्य की सिद्धि के लिए अप्रधान प्रसंगों की प्रस्तुति आदि ।
उत्तराध्ययन के निम्न प्रसंगों में प्रकरण-वक्रता बड़े कौशल के साथ उजागर हुई है -
जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई। उत्तर. १/४
जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु गण से निकाल दिया जाता है।
यहां अविनीत शिष्य के वर्णन के प्रसंग में ‘सड़े कानों वाली कुतिया' का वर्णन जुगुप्सा-भाव की अभिव्यंजना में समर्थ है। चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार 'शुनी' शब्द का प्रयोग अत्यन्त गर्दा एवं कुत्सा को व्यक्त करने के लिए किया गया है।
जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी अणुकंपओ तस्स महामुणीस्सा पच्छायइत्ता नियगं सरीरं इमाई वयणाइमुदाहरित्था|उत्तर. १२/८ उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकंपा करने वाला तिन्दुक
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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