Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सो णाम महावीरो जो रज्नं पयहिऊण पव्वइओ ।
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कामक्कोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ ||
अर्थात् राज्य वैभव का परित्याग करके जो दीक्षित हुआ और दीक्षित होकर कामक्रोध आदि महाशत्रु पक्ष का परित्याग किया वही निश्चय से महावीर है।
यहां राज्य-श्री त्याग, अंतरंग शत्रुओं पर विजय रूप वीररस का हृदयग्राही चित्रण किया गया है। संयम के प्रति बढ़ता हुआ उत्साह स्थायी भाव है। प्रबल संकल्प आलम्बन विभाव है। धृति आदि उद्दीपन विभाव है। त्याग, संयम-ग्रहण आदि अनुभावों से वीररस की अभिव्यक्ति हुई है।
केवल बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना ही वीररस नहीं है, अपितु कषाय- शत्रुओं पर विजय, महद् ऐश्वर्य का त्याग आदि भी वीर रस है। आगमिक दृष्टि से त्यागवीर, तपवीर और युद्धवीर - ये तीन भेद वीररस के मान सकते हैं। आचार्य भरत के दानवीर को त्यागवीर एवं धर्मवीर को तपवीर कह सकते हैं। वीररस के चारों भेद त्यागवीर, तपवीर, युद्धवीर में अनुस्यूत हो सकते हैं। क्योंकि दान और दया दोनों में त्याग और निरहंकार आवश्यक है, अतः उन्हें अनुयोगद्वार की भाषा में त्यागवीर कह सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से वीररस के त्यागवीर, तपवीर और युद्धवीर तीन भेद परिलक्षित होते हैं। उत्तराध्ययन में इन तीनों रूपों की उपलब्धि है। त्यागवीर
त्याग का अर्थ है छोड़ना। जो प्रिय से प्रिय वस्तु के परित्याग में उत्साहवान रहता है वह त्यागवीर की कोटि में आता है। उत्तराध्ययन में अनेक वीर नायकों का विवरण प्राप्त है, जिन्होंने भौतिक समृद्धि से परिपूर्ण संसार का त्याग कर के संयम जीवन स्वीकार कर परम वीरता दिखाई है। उनमें भरत, सगर, मधवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थु नरेश्वर, अर, महापद्म, हरिषेण, जय आदि चक्रवर्ती तथा दशार्णभद्र, विदेह के अधिपति नमि, करकण्डु, द्विमुख, नग्गति, उद्रायण, श्वेत, विजय, महाबल आदि राजाओं का मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार त्याग प्रशंसनीय है (उत्तर. १८/ ३४-५०)।
इनमें दस चक्रवर्ती और नौ मांडलिक नृप हैं।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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