Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जइ मज्झ कारणा एए हम्मिहिंति बह जिया। न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई॥ उत्तर . २२/१९
यदि मेरे निमित्त इन बहुत से जीवों का वध होने वाला है तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा।
कवि ने यहां अरिष्टनेमि के अंत:करण में स्थित करुणापूर्ण दशा का मार्मिक शब्दो में वर्णन किया है। प्राणी-वध प्रतिपादक वचन यहां आलम्बन विभाव है। जीवों के प्रति करुणा, आत्मा का कर्मों से भारी होना आदि उद्दीपन विभाव हैं। विवाह से वापस मुड़ना, अभिनिष्क्रमण करना आदि अनुभाव हैं। निर्वेद, आत्मग्लानि आदि संचारी भावों से पुष्ट अरिष्टनेमि के हृदय में शोक स्थायी भाव है।
प्राणियों का क्रन्दन अरिष्टनेमि के चित्त में दु:ख उत्पन्न करता है, इसलिए यहां करुण-रस निष्पन्न हुआ है। प्राणनाथ अरिष्टनेमि के प्रव्रज्या की बात को सुनकर राजकन्या राजीमती अपनी हंसी-खुशी, आनन्द सब कुछ खो बैठती है। वह शोक से स्तब्ध हो गई -
सोऊण रायकन्ना पव्वज्जं सा जिणस्स उ। निहासा य निराणंदा सोगेण उ समुत्थया। उत्तर. २२/२८
यहां करुणाभास का सुंदर चित्रण हुआ है। रौद्र-रस
शत्रु कृत अपकार, मानभंग, गुरुजनों की निंदा, शत्रु की चेष्टा आदि से रौद्र-रस की उत्पत्ति होती है। यह संग्रामहेतुक क्रोध रूप स्थायी भाव वाला है। यह राक्षस, दानव एवं उद्धत मनुष्यों के आश्रित होता है। औद्धत्य, अश्लील वाक्य, कलह, विवाद एवं प्रतिकूल भावों या विरोध के कारण क्रोध उत्पन्न होता है।२१
अनुयोगद्वार में रौद्र-रस का लक्षण बताते हुए कहा- भयंकर रूप, शब्द, अंधकार, चिन्ता और व्यथा से रौद्र-रस उत्पन्न होता है। सम्मोह, संभ्रम, विवाद और मरण इसके लक्षण हैं।२२
भयजणणरूव-सइंधकारचिंता कहासमुपन्नो। संमोह-संभम-विसाय-मरणलिंगो रसो रोहो॥ उत्तराध्ययन में अत्यल्प मात्रा में रौद्र-रस का निर्दशन मिलता है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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