Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
४. उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
रस
साहित्य में रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैसे नमकरहित भोजन स्वादिष्ट नहीं होता वैसे ही रसविहीन साहित्य सरस नहीं होता।भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में रस शब्द सर्वोत्कृष्ट तत्त्व के लिए प्रयुक्त हुआ है। फलों के क्षेत्र में रस मधुरतम तरल पदार्थ है। संगीत के क्षेत्र में श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा प्राप्त आनन्द रस है। चिकित्सा के क्षेत्र में रस प्राणदायिनी औषधियों का द्योतक है। आप्टे ने सत्, सार, तत्त्व, सर्वोत्तम भाग, आनन्द, प्रसन्नता आदि अर्थों में इसे निर्दिष्ट किया है। 'रसो वै स:। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति'२ कहकर परमात्मा को ही रस कहा गया है। भारतीय साहित्य-शास्त्र में रस काव्यशास्त्र का मेरुदण्ड ही नहीं, उसकी महत्तम उपलब्धि है। अभिनव गुप्त ने रस-ध्वनि को ही काव्य की आत्मा माना, वस्तु तथा अलंकार ध्वनि को ध्वनि तो माना किन्तु उन्हें काव्य की आत्मा नहीं माना क्योंकि वस्तु, अलंकार कभी तो वाच्य होते हैं और कभी व्यंग्य । रस तो कभी भी वाच्य नहीं होता है। यह तो वाच्यासहिष्णु व्यंग्य होता है। इसलिए इसे ही काव्य की आत्मा माना है।
रस-सिद्धान्त के प्रवर्तक भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में रस का विवेचन करते हुए पूर्ववर्ती आचार्यों की ओर संकेत कर लिखा - एते यष्टौ रसा: प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना।३ फिर भी पूर्वग्रंथों की अनुपलब्धि के कारण भरत ही रस के प्रर्वत्तक माने गये। रसोत्पत्ति
। रस-दशा के संदर्भ में भरत मुनि ने कहा - 'विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्ति:।'४ विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अनेक व्यंजनों तथा औषधियों के संयोग से जैसे रस की उत्पत्ति होती है, वैसे ही विविध भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती
128
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org