Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पंचालराज! मेरा वचन सुन। प्रचुर कर्म मत कर।
यहां चित्त मुनि की अनुभूति, मूल भावना भोगों में लिप्त अपने बंधु ब्रह्मदत्त को श्रव्यबिम्ब के माध्यम से प्रचुर कर्म नहीं करने की प्रेरणा दे रही है। भाई का उत्कृष्ट संयम देखकर, सुखोपभोग के साधनों की सर्वसुलभता के बावजूद भी चक्री की चेतना को अनासक्तता का परिचय देना चाहिए था, पर ऐसा दृष्टिगत नहीं हो रहा है। चित्त की कामभोगों के परिणामों की भयंकरता की अनुभूति की तीव्रता श्रव्यबिम्ब से मुखर हो रही है।
___ श्रव्य-बिम्ब के अतिरिक्त 'पंचालराया!' शब्द सुनते ही ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की ऋद्धि-सिद्धि नेत्रेन्द्रिय के सामने उपस्थित हो जाती है। 'मा कासि' प्रचुर कर्म मत कर-यह वाक्य क्रिया बिम्ब का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है तो 'कम्माइं' शब्द से कर्म का भाव-बिम्ब पाठक को कर्मसिद्धांत का रहस्य बताता है।
_ 'एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं' एक धर्म ही संसार में त्राण है, वही हमें अपने शाश्वत घर - मोक्ष की ओर ले जाने में समर्थ है
नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। एयं पत्थं महारायं! उसुयारि त्ति मे सुय।। उत्तर. १४/४८
जैसे बंधन को तोड़ कर हाथी अपने स्थान पर चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान-मोक्ष में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार! यह पथ्य है, इसे मैंने ज्ञानियों से सुना है।
'ज्ञानियों से सुना' इस वचन में अध्यात्म की ध्वनि मुखरित हो रही है। यह ध्वनि-बिम्ब राजा इणुकार को संयमपथ का पथिक, अकिंचन, अपरिग्रही बनाने में सक्षम हुआ है।
यहां हाथी का अपने स्थान पर जाने से गमन-बिम्ब तथा बंधन को तोड़ने की क्रिया से क्रिया बिम्ब का भी उपस्थापन हो रहा है।
ऊंचे छत्र-चामरों से सुशोभित, दशार-चक्र से सर्वतः परिवृत्त अरिष्टनेमि विवाह के लिए जा रहे हैं, उस समय 'तुरियाण सन्निनाएण दिव्वेण गगणं फुसे' (उत्तर. २२/१२) वाद्यों के गगनस्पर्शी दिव्यनाद पूरे नगर के साथ-साथ सहृदय पाठक के अन्तःस्थल को भी सरोबार कर श्रव्य
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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